शनिवार, 21 सितंबर 2013

जो तुम आ जाते एक बार ।-महादेवी वर्मा




जो तुम आ जाते एक बार ।

कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार ।

हंस उठते पल में आद्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार ।

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

जय जन भारत-सुमित्रा नंदन पंत



जय जन भारत जन- मन अभिमत

जन गणतंत्र विधाता
जय गणतंत्र विधाता

गौरव भाल हिमालय उज्जवल
हृदय हार गंगा जल
कटि विंध्याचल सिंधु चरण तल
महिमा शाश्वत गाता
जय जन भारत ...

हरे खेत लहरें नद-निर्झर
जीवन शोभा उर्वर
विश्व कर्मरत कोटि बाहुकर
अगणित-पद-ध्रुव पथ पर
जय जन भारत ...

प्रथम सभ्यता ज्ञाता
साम ध्वनित गुण गाता
जय नव मानवता निर्माता
सत्य अहिंसा दाता

जय हे- जय हे- जय हे
शांति अधिष्ठाता
जय -जन भारत...

बुधवार, 18 सितंबर 2013

देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ-राम अवतार त्यागी

मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ

मॉं तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन
थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण

गान अर्पित, प्राण अर्पित
रक्त का कण-कण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ

मॉंज दो तलवार को, लाओ न देरी
बॉंध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी
शीश पर आशीष की छाया धनेरी

स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ

तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो
गॉंव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो

सुमन अर्पित, चमन अर्पित
नीड़ का तृण-तृण समर्पित
चहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ




सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है-रामप्रसाद बिसमिल।

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।

करता नहीं क्यों दुसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफिल मैं है ।

रहबर राहे मौहब्बत रह न जाना राह में
लज्जत-ऐ-सेहरा नवर्दी दूरिये-मंजिल में है ।

यों खड़ा मौकतल में कातिल कह रहा है बार-बार क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है ।

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफिल में है ।

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है ।

खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उम्मींद, आशिकों का जमघट आज कूंचे-ऐ-कातिल में है ।

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।

है लिये हथियार दुश्मन ताक मे बैठा उधर
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हाथ जिनमें हो जुनून कटते नही तलवार से
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से और भडकेगा जो शोला सा हमारे दिल में है सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हम तो घर से निकले ही थे बांधकर सर पे कफ़न जान हथेली में लिये लो बढ चले हैं ये कदम जिंदगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल मैं है सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल
में है

दिल मे तूफानों की टोली और नसों में इन्कलाब होश दुश्मन के उडा देंगे हमे रोको न आज दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंजिल मे है सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल
में है

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

नया बचपन-सुभदरा कुम्हारी चौहान।

बार बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी |
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी ||
चिंता रहित खेलना खाना वह फिरना निर्भय स्वछंद?
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
उंच नीच का ज्ञान नही था , छुआ छूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहां झोपडी और चीथड़ों में रानी ||
किए दूध के कुल्ले मैंने चूस अंगूठा सुधा पीया |
किलकारी किल्लोर मचाकर सूना घर आबाद किया ||
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे |
बड़े बड़े मोती से आंसू जय माला पहनाते थे ||
मैं रोई, मां काम छोड़कर आई, मुझको उठा लिया |
झाड़ फूंक कर चूम चूम गीले गलों को सुखा दिया ||
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर- युत दमक उठे |
धुली हुई मुस्कान देखकर सबके चहरे चमक उठे ||
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई |
लुटी हुई कुछ ठगी हुई सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई ||
लाज भरी आँखें थी मेरी मन में उमंग रंगीली थी |
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी ||
मन में एक उमंग सी भी थी ये दुनिया अलबेली थी |
दिल में एक चुभन सी थी मैं सबके बीच अकेली थी ||
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने |
अरे जवानी के फंदे में मुझको फंसा दिया तूने ||
सब गलियां उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं |
प्यारे प्रीतम की स्म्रतियों की रंग रलियाँ भी प्यारी है ||
माना मैंने युवा काल का जीवन खूब निराला है |
आकांशा पुरुसार्थ ज्ञान का उदय मोहने वाला है
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध छेत्र संसार बना |
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना ||
आ जा बचपन ! एक बार फ़िर दे दे अपनी निर्मल शान्ति |
व्याकुल व्यथा मिटाने वाली बह अपनी प्राकृत विश्रांति ||
वह भूली सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप |
क्या आकर फ़िर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी |
नंदन वन सी फूल उठी वह नन्ही सी कुटिया मेरी ||
'मां ओ' कह कर बुला रही थी मिटटी खा कर आई थी |
कुछ मुह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने आई थी ||
पुलक रहे थे अंग द्रगों में कौतुहल था छलक रहा |
मुहं पर थी आह्लाद लालिमा विजय गर्व था झलक रहा ||
मैंने पूछा ये क्या लाई बोल उठी 'माँ काओ' |
हुआ प्रफुल्लित ह्रदय खुशी से मैंने कहा-' तुम्ही खाओ' ||
पाया मैंने बचपन फ़िर से बचपन बेटी बन आया |
उसकी मंजुल मूर्ती देख कर मुझ में नव जीवन आया ||
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ |
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ ||
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया |
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फ़िर से आया ||

मुरझाया फूल-महादेवी वर्मा

था कली के रूप शैशव में, अहो सूखे सुमन
हास्य करता था, खिलाती अंक में तुझको पवन
खिल गया जब पूर्ण तू मंजुल, सुकोमल पुष्पवर
लुब्ध मधु के हेतु मँडराने लगे आने भ्रमर
स्निग्ध किरनें चाँद की, तुझको हंसाती थी सदा,
रात तुझ पर वारती थी मोतियों की संपदा
लोरियां गा कर मधुप निद्रा-विवश करते तुझे
यत्न माली का रहा आनंद से भरता तुझे
कर रहा अठखेलियाँ इतरा रहा उद्यान में
अंत का ये दृश्य आया था कभी क्या ध्यान में?
सो रहा अब तू धरा पर, शुष्क बिखराया हुआ
गंध कोमलता नहीं, मुख मंजु मुरझाया हुआ
आज तुझको देखकर चाहक भ्रमर आता नहीं
लाल अपना राग तुझपर प्रात बरसाता नहीं
जिस पवन ने अंक में ले प्यार तुझको था किया
तीव्र झोकों से सुला उसने तूझे भू पर दिया
कर दिया मधु और सौरभ दान सारा एक दिन
किंतु रोता कौन हैं तेरे लिए दानी सुमन
मत व्यथित हो फूल, सुख किसको दिया संसार ने
स्वार्थमय सबको बनाया है यहाँ करतार ने
विश्व मैं हे फूल! तू सबके ह्रदय भाता रहा
दान कर सर्वस्व फ़िर भी हाय! हर्साता रहा
जब ना तेरी ही दशा पर दुःख हुआ संसार को
कौन रोयेगा सुमन हमसे मनुज निःसार को


सोमवार, 16 सितंबर 2013

फूलवाली-रामकुमार वर्मा

फूल-सी हो फूलवाली।
किस सुमन की सांस तुमने
आज अनजाने चुरा ली!
जब प्रभा की रेख दिनकर ने
गगन के बीच खींची।
तब तुम्हीं ने भर मधुर
मुस्कान कलियां सरस सींची,
किंतु दो दिन के सुमन से,
कौन-सी यह प्रीति पाली?
प्रिय तुम्हारे रूप में
सुख के छिपे संकेत क्यों हैं?
और चितवन में उलझते,
प्रश्न सब समवेत क्यों हैं?
मैं करूं स्वागत तुम्हारा,
भूलकर जग की प्रणाली।
तुम सजीली हो, सजाती हो
सुहासिनि, ये लताएं
क्यों न कोकिल कण्ठ
मधु ॠतु में, तुम्हारे गीत गाएं!
जब कि मैंने यह छटा,
अपने हृदय के बीच पा ली!
फूल सी हो फूलवाली।