मंगलवार, 17 सितंबर 2013

मुरझाया फूल-महादेवी वर्मा

था कली के रूप शैशव में, अहो सूखे सुमन
हास्य करता था, खिलाती अंक में तुझको पवन
खिल गया जब पूर्ण तू मंजुल, सुकोमल पुष्पवर
लुब्ध मधु के हेतु मँडराने लगे आने भ्रमर
स्निग्ध किरनें चाँद की, तुझको हंसाती थी सदा,
रात तुझ पर वारती थी मोतियों की संपदा
लोरियां गा कर मधुप निद्रा-विवश करते तुझे
यत्न माली का रहा आनंद से भरता तुझे
कर रहा अठखेलियाँ इतरा रहा उद्यान में
अंत का ये दृश्य आया था कभी क्या ध्यान में?
सो रहा अब तू धरा पर, शुष्क बिखराया हुआ
गंध कोमलता नहीं, मुख मंजु मुरझाया हुआ
आज तुझको देखकर चाहक भ्रमर आता नहीं
लाल अपना राग तुझपर प्रात बरसाता नहीं
जिस पवन ने अंक में ले प्यार तुझको था किया
तीव्र झोकों से सुला उसने तूझे भू पर दिया
कर दिया मधु और सौरभ दान सारा एक दिन
किंतु रोता कौन हैं तेरे लिए दानी सुमन
मत व्यथित हो फूल, सुख किसको दिया संसार ने
स्वार्थमय सबको बनाया है यहाँ करतार ने
विश्व मैं हे फूल! तू सबके ह्रदय भाता रहा
दान कर सर्वस्व फ़िर भी हाय! हर्साता रहा
जब ना तेरी ही दशा पर दुःख हुआ संसार को
कौन रोयेगा सुमन हमसे मनुज निःसार को


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