शनिवार, 2 नवंबर 2013

दोनो ओर प्रेम पलता है / मैथिलीशरण गुप्त




दोनों ओर प्रेम पलता है !
सखि पतंग भी जलता है हा ! दीपक भी जलता है !!

सीस हिलाकर दीपक कहता
बंधु वृथा ही तू क्यों दहता
पर पतंग पड़कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है !

बचकर हाय पतंग मरे क्या
प्रणय छोड़कर प्राण धरे क्या
जले नही तो मरा करें क्या
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है !

कहता है पतंग मन मारे
तुम महान मैं लघु पर प्यारे
क्या न मरण भी हाथ हमारे
शरण किसे छलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है !

दीपक के जलने में आली
फिर भी है जीवन की लाली
किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली
किसका वश चलता है !
दोनों ओर प्रेम पलता है!

जगती वणिग्वृत्ति है रखती
उसे चाहती जिससे चखती
काम नही परिणाम निरखती
मुझको ही खलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है!

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