मंगलवार, 13 जनवरी 2015

फंदा / आचार्य चतुरसेन शास्त्री


सन् १९१७ का दिसम्बर था। भयानक सर्दी थी। दिल्ली के दरीबे-मुहल्ले की एक तंग गली में एक अँधेरे और गन्दे मकान में तीन प्राणी थे। कोठरी के एक कोने में एक स्त्री
बैठी हुई अपने गोद के बच्चे को दूध पिला रही थी, परन्तु यह बात सत्य नहीं है, उसके स्तनों का प्रायः सभी दूध सूख गया था और उन बे-दूध के स्तनों को बच्चा आँख
बन्द किए चूस रहा था। स्त्री का मुँह परम सुन्दर होने पर भी इस वक्त ज़र्द और सूखा हुआ दिखाई दे रहा था। यह स्पष्ट ही मालूम होता था कि उसके पहले शरीर का सिर्फ
अस्थि-पंजर ही रह गया है। गाल पिचक गए थे, आँखें धंस गई थीं और उनके चारों ओर नीली रेखा पड़ गई थी तथा ओंठ मुर्दे की तरह विदर्ण हो गए थे। मानो वेदना और दरिद्रता
मूर्तिमयी होकर उस स्त्री के आकार में प्रकट हुई थी। ऐसी उस माता की गोद में वह कंकालाविष्ट बच्चा अध-मुर्दा पड़ा था। उसकी अवस्था आठ महीने की होगी, पर वह आठ
सप्ताह का भी तो नहीं मालूम होता था। स्त्री के निकट ही एक आठ वर्ष का बालक बैठा हुआ था, जिसकी देह बिल्कुल सूख गई थी, और इस भयानक सर्दी से बचाने के योग्य
उसके शरीर पर एक चिथड़ा मात्र वस्त्र था। वह चुपचाप भूखा और बदहवास माँ की बगल में बैठा टुकुर-टुकुर उसका मुँह देख रहा था।

इनसे दो हाथ के फासले पर तीन साल की बालिका पेट की आग से रो रही थी। जब वह रोते-रोते थक जाती अथवा चुपचाप आँख बन्द करके पड़ जाती थी, पर थोड़ी देर बाद वह फिर
तड़पने लगती थी। बेचारी असहाय अबला विमूढ़ बनी अतिशय विचलित होकर अपने प्राणों से प्यारे बच्चों की यह वेदना देख रही थी। कभी-कभी वह अत्यन्त अधीर हो कर गोद
के बच्चे को घूर-घूर कर देखने लगती, दो-एक बूँद आँसू ढरक जाते, और कुछ अस्फुट शब्द मुख से निकल पड़ते थे, जिन्हें सुन और कुछ-कुछ समझकर पास बैठे बालक को कुछ
कहने का साहस नहीं होता था। इस छोटे से परिवार को इस मकान में आए और इस जीवन में रहते पाँच मास बीत रहे थे। पाँच मास प्रथम यह परिवार सुखी और सम्पन्न था। बच्चे
प्रातःकाल कलेवा कर गीत गाते, स्कूल जाते थे। इसी मुहल्ले में इनका सुन्दर मकान था, और है, पर एक ही घटना से यहाँ तक नौबत आ गई थी। इस परिवार के कर्णधार, एकमात्र
स्वामी, बच्चों के पिता और दुखिया स्त्री के जीवन-धन मास्टर साहब, जिन्हें सैकड़ों अमीरों और गरीबों के बच्चे अभिवादन कर चुके थे, जो मुहल्ले के सुजन, हँसमुख
और नगर भर के प्यारे नागरिक और सार्वजनिक नेता थे, आज जेल की दीवारों में बन्द थे, उन पर जर्मनी से षड्यन्त्र का अभियोग प्रमाणित हो चुका था और उन्हें फाँसी
की सजा हो चुकी थी, अब अपील के परिणाम की प्रतीक्षा थी।

प्रातःकाल की धूप धीरे-धीरे बढ़ रही थी। स्त्री ने धीमे, किन्तु लड़खड़ाते स्वर में कहा-बेटा विनोद...क्या तुम बहुत ही भूखे हो?

'नहीं तो माँ...रात ही तो मैंने रोटी खाई थी?'

'सुनो-सुनो, एक-दो-तीन (इस तरह आठ तक गिन कर) आठ बज रहे हैं, किराए वाला आता ही होगा।'

'मैं उसके पैरों पड़कर और दो-तीन दिन टाल दूँगा माँ। इस बार वह तु्म्हें जरा भी कड़ी बात न कहने पाएगा।'

स्त्री ने परम करुणा-सागर की ओर क्षण-भर आँख उठा कर देखा, और उसकी आँखों से दो बूँदें ढरक गईं।

यह देखरकर छोटी बच्ची रोना भूल कर माता के गले में आकर लिपट गई और बोली-'अम्माँ...अब मैं कभी रोटी नहीं माँगूँगी।'

हाय रे माता का हृदय...माता ने दोनों बच्चों को गोद में छिपा कर एक बार अच्छी तरह आँसू निकाल डाले।

इतने ही में किसी ने कर्कश शब्द से पुकारा-'कोई है न?'

बच्चे को छाती में छिपाकर काँपते-काँपते स्त्री ने कहा-सर्वनाश...वह आ गया।

एक पछैयाँ जवान लट्ठ लेकर दर्वाज़ा ठेल कर भीतर घुस आया।

उसे देखकर ही स्त्री ने अत्यन्त कातर होकर कहा-मैं तुम्हारे आने का मतलब समझ गई हूँ।

'समझ गई हो तो लाओ किराया दो।'

'थोड़ा और सब्र करो।'

'बालक ने कहा-दो-तीन दिन में हम किराया दे देंगे'

बालक को ढकेलते हुए उद्धतपन से उसने कहा-सब्र गया भाड़ में, अभी मकान से निकलो। मकान क्या दिया, जान का बवाल मोल ले लिया, पुलिस ने घर को बदनाम कर दिया है।
लोग नाम धरते हैं, सरकार के दुश्मन को घर में छिपा रक्खा है। निकलो, अभी निकलो।

स्त्री खड़ी हो गई। धक्का खाकर बच्चा गिर गया था। उसे उठा कर उसने कहा-भाई, मुसीबत वालों पर दया करो, तुम भी बाल-बच्चेदार हो।

'मैं दया-मया कुछ नहीं जानता, मैं तुमसे कहे जाता हूँ कि आज दिन छिपने से पहले-पहले यदि भाड़ा न चुका दिया गया तो आज रात को ही निकाल दूँगा।'

इतना कह कर वह व्यक्ति एक बार कड़ी दृष्टि से तीनों अभागे प्राणियों को घूरता हुआ जोर से दरवाजा बन्द करके चला गया।

दुखिया स्त्री इसके बाद ही धरती में धड़ाम से गिरकर मूर्च्छित हो गई।

उपरोक्त घटना के कुछ ही मिनट बाद एक अधेड़ अवस्था के सभ्य पुरुष धीरे-धीरे मकान में घुसे। इनके आधे बाल पककर खिचड़ी हो गए थे-दाँत सोने की कमानी से बँधे थे,
साफ ऊनी वस्त्रों पर एक दुशाला पड़ा था। हाथ में चाँदी की मूँठ की पतली से एक बेंत थी। रंग गोरा, कद ठिगना और चाल गम्भीर थी।

उन्होंने पान कचरते-कचरते बड़ा घरौआ जताकर बालक का नाम लेकर पुकारा-बेटा विनोद...

विनोद ने गरदन उठा कर देखा, बच्चे की माता ने सावधानी से उठ कर अपने वस्त्र ठीक कर लिए।

आगन्तुक ने बिना प्रश्न किए ही कहा--देखो अपील का क्या नतीजा निकलता है, हम विलायत तक लड़ेंगे, आगे भगवान की मर्जी।

स्त्री चुपचाप बैठी रही, सब सुन कर न बोली, न हिली-डुली। इस पर आगन्तुक ने अनावश्यक प्रसन्नता मुख पर लाकर कहा- क्यों रे विनोद, तेरा मुँह क्यों उतर रहा है?
क्यों बहू, क्या बात है-बच्चों का यह हाल बना रखा है, अपना तो जो कुछ किया सो किया। इस तरह जान खोने से क्या होगा? तुमसे इतना कहा, मगर तुमने घर छोड़ दिया।
मानो हम लोग कुछ हैं ही नहीं। भाई सुनेंगे तो क्या कहेंगे? मैं परसों जेल में मिला था, बहुत खुश थे। अपील की उन्हें बड़ी आशा है। तुम्हें भी खुश रहना उचित है।
दिन तो अच्छे-बुरे आते हैं और जाते हैं, इस तरह सोने की काया को मिट्टी तो नहीं किया जाता।

इतनी लम्बी वक्तृता सुन कर भी गृहिणी न बोली, न हिली-डूली। वह वैसी ही अचल बैठी रही।

आगन्तुक ने कुछ रुक कर दो रुपये निकाल कर बच्चे के हाथ पर धर दिए और कहा-लो बेटा, जलेबियाँ खाना। बच्चे ने क्षण भर माता के मुख की ओर देखा और तत्काल हाथ खींच
लिया। रुपये धरती पर खन्न से बज उठे। बच्चा पीछे हट कर माँ का आँचल पकड़ कर खड़ा हो गया।

आगन्तुक रुपए उठा कर उन्हें फिर से देने को आगे बढ़ा। गृहिणी ने बाधा देकर कहा-रहने दीजिए, वह जलेबी नहीं खाता। हम गरीब विपत्ति के मारे लोग हैं, एक टुकड़ा
रोटी ही बहुत है। पर आप कृपा करें तो या तो उनेक बैंक के हिसाब में से, मकान के हिस्से को आड़ करके कुछ रुपये मुझे उधार दे दीजिए।

'उनेक बैंक के हिसाब में तो बिना उनके दस्तखत के कुछ मिलेगा नहीं, फिर मुझे मालूम हुआ है कि वहाँ ऐसी कुछ रकम है भी नहीं। रहा मकान, सो उसका तुम्हारा वाला हिस्सा
रहन रख कर ही तो मुकदमा लड़ाया है, मुकदमें में क्या कम रकम खर्च हुआ है?'

गृहिणी चुप बैठी रही।

आगन्तुक ने कहा-मैं अपने पास से जो कहो दे दूँ। तुम्हें कितने रुपये चाहिए?

गृहिणी ने धीमे स्वर में कहा-आपको मैं कष्ट नहीं देना चाहती।

'मैं क्या गैर हो गया?'

स्त्री बोली-नहीं

अब आगन्तुक ज़रा और पास खिसक कर बोला-मेरी बात मानो, घर चलो, सुख से रहो। जो होना था हुआ, होना होगा हो जाएगा। किसी के साथ मरा तो जाता ही नहीं है। मेरा जगत्
में और कौन है, तुम क्या सब बातें समझती नहीं हो?

'खूब समझती हूँ, अब आप कृपा कर चले जायँ।'

'पर मैं जो बात बारम्बार कहता हूँ, वह समझती क्यों नहीं?'

'कब की समझ चुकी हूँ। तुम मुझ दुखिया को सता कर क्या पाओगे? मेरा रास्ता छोड़ दो, मैं यहाँ अपने दिन काटने आई हूँ, आपका कुछ लेती नहीं हूँ। उनका मकान-जायदाद
सभी आपके हाथ है, आपका रहे, मैं केवल यही चाहती हूँ कि आप चले जाइए।'

आगन्तुक ने कड़े होकर कहा-क्या मैं साँप हूँ या घिनौना कुत्ता हूँ?

'आप जो कुछ हों, मुझे इस पर विचार नहीं करना है।'

'और तुम्हारी यह हिम्मत और हेकड़ी अब भी?'

गृहिणी चुप रही

'यहाँ भी मेरे एक इशारे से निकाली जाओगी, फिर क्या भीख माँगोगी?'

ग़ृ़हिणी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

आगन्तुक ने उबाल में आकर कहा-लो साफ़-साफ़ कहता हूँ, तुम्हें मेरी बात मंजूर है या नहीं?

गृहिणी चुपचाप बच्चे को छाती से छिपाए बैठी रही। आगन्तुक ने उसका हाथ पकड़ कर कहा-आज में इधर-उधर कर के जाऊँगा।

स्त्री ने हाथ झटक कर कहा-पैरों पड़ती हूँ, चले जाओ।

'तेरा हिमायती कौन है?'

'मैं गरीब गाय हूँ।'

'फिर लातें क्यों चलाती है? बोल, चलेगी?'

'नहीं'

'मेरी बात मानेगी?'

'नहीं।'

'तुझे घमण्ड किसका है?'

'मुझे कुछ घमण्ड नहीं है।'

'तुझे आज रात को ही सड़क पर खड़ा होना पड़ेगा।'

'भाग्य में जो लिखा है, होगा।'

'लोहे के टके की आशा न रखना...'

गृहिणी खड़ी हो गई। उसने अस्वाभाविक तेज-स्वर में कहा-दूर हो...ओ पापी....भगवान से डर, मौत जिनके घर मिहमान बनी बैठी है, उन्हें न सता, भय उन्हें क्या डराएगा?
विश्वासघाती भाई...भाई को फँसा कर फाँसी पहुँचाने वाले अधर्मी...उन्हें फँसाया, जमीन-जायदाद ली, अब उसकी अनाथ गरीब दुखिया स्त्री की आबरू भी लेने की इच्छा करता
है? अरे पापी, हट जा...हट जा...।

आवेश में आने से स्त्री का वस्त्र खिसक कर नीचे गिर गया। वह दशा देख कर बच्चे रो उठे।

बड़े बच्चे के मुँह पर जोर से तमाचा मार कर आगन्तुक ने कहा-'तेरी पारसाई आज ही देख ली जाएगी। मुसलमान गुण्डे....' वह कुछ और न बोल सका-वह दोनों हाथ मीच कर क्रोध
से काँपने लगा।

स्त्री ने कहा-'जा...जा...पापी-जा...' और वह बदहवास चक्कर खा कर गिर गई।

दोनों बच्चे जोर-जोर से रो पड़े। आगन्तुक तेजी से चल दिया।

वही दिन और वही प्रातःकाल था, परन्तु उस भाग्यहीन घर से लगभग पौन मील दूर दिल्ली की जेल में एक और ही दृश्य सामने था। जेल के अस्पताल में बिल्कुल एक ओर एक छोटी
सी कोठरी थी। जिन कैदियों को बिल्कुल एकान्त ही में रहने की आवश्यकता होती थी, वे ही इसमें रक्खे जाते थे। इस वक्त भी इसमें एक कैदी था। उसकी आकृति कितनी घिनौनी,
वेश कैसा मलिन और चेष्टा कैसी भयंकर थी? कि ओफ़...कई दिन से वह कैदी भयानक आत्मिक ज्वर से तप रहा था, और कोठरी में रक्खा गया था।

कोठरी बड़ी काली, मनहूस और कोरी अनगढ़े पत्थरों की बनी हुई थी, और उसमें अनगिनत मकड़ियों के जाले, छिपकलियाँ तथा कीड़े-मकोड़े रेंग रहे थे। उसमें न सफाई थी,
न प्रकाश। ऊपर एक छोटा सा छेद था। उसी में से सूरज की रोशनी कमरे में पड़ते ही उसकी नींद टूट गई। प्यास से उसका कण्ठ सूख रहा था। वह बड़े कष्ट से चारपाई के
इर्द-गिर्द हाथ बढ़ा कर कोई पीने की चीज़ ढूँढने लगा। पर उसे कुछ भी न मिला। तंग प्यास की तकलीफ़ से छटपटा कर वह बड़बड़ाने लगा-'कौन देखता है? कौन सुनता है?
हाय...इतनी लापरवाही से तो लोग पशुओं को भी नहीं रखते। डॉक्टर मेरे सामने ही उस वार्डर से थोड़ा दूध दो-तीन बार देने और रात दो-तीन बार देखने को कह गया था।
पर कोई क्यों परवाह करता? मेरी नींद तो रात भर टूटती रही है। मैंने प्रत्येक घन्टा सुना है। यह पहाड़ सी रात किस तकलीफ से काटी है...यह कष्ट तो फाँसी से अधिक
है।'

रोगी अब चुपचाप कुछ सोचने लगा। धीरे-धीरे प्रकाश ने फैल कर कमरे को स्पष्ट प्रकाशमान कर दिया। धीरे-धीरे उसकी प्यास असह्य हो चली, पर वह बेचारा कर ही सकता था।
वार्डर की खूँखार फटकार से भयभीत होने पर भी वह एक बूँद पाने के लिए गला फाड़ कर चिल्लाने लगा। पर न कोई आया और न किसी ने जवाब ही दिया। वह प्यास से बेदम हो
रहा था-उसका प्राण निकल जाता था। वह बारम्बार 'पानी-पानी' चिल्लाने लगा। कभी अनुनय-विनय भी करता, कभी गालियाँ बकने लगता।

ईश्वर के लिए थोड़ा पानी दे जाओ, हाय...एक बूँद पानी, अरे मैं तुम लोगों को बड़ा कष्ट देते हूँ...पर क्या करूँ, प्यास के मारे मेरे प्राण निकल रहे हैं। अरे,
मैं भी तु्म्हारे जैसा मनुष्य हूँ। मुझे इस तरह क्यों तड़पा रहे हो-इतनी उपेक्षा तो कोई बाजारू कुत्तों की भी नहीं करता। अरे आओ, नहीं तो मैं बिछौने से उठ कर,
सब दरवाजे तोड़ डालूँगा और इतनी जोर से चिल्लाऊँगा कि सुपरिन्टेन्डेन्ट के बंगले तक आवाज़ पहूँचेगी।

इस पर एक घिनौने मोटे-ताजे अधेड़ व्यक्ति ने छेद में से सिर निकाल कर कहा-अरे अभागे...क्यों इतना चिल्लाता है, क्यों दुनिया की नींद खराब करता है?

'मैं प्यास के मारे मर रहा हूँ।'

'फिर मर क्यों नहीं जाता? तू क्या समझता है कि मैं तेरा नौकर हूँ, क्या रात-भर तेरी सेवा में हाजिर रहना ही मुझे चाहिए?'

इसके बाद वह एक नौकर को पुकार कर बोला-अरे देख तो...थोड़ा पानी ला कर इस बदमाश के मुँह में डाल दे। इतना हुक्म देकर वह निष्ठुर फिर चल दिया। पानी पी कर रोगी
थकान के मारे बेसुध होकर सो गया। यही कैदी उस दुखिया का सौभाग्य-बिन्दु 'मास्टर-साहब' थे।

अचानक उसी वार्डर की कर्कश आवाज सुन कर वह चौंक पड़ा। उसने चाबियों से कोठरी का द्वार खोला। रोगी एकटक देखने लगा। पादरी और जेलर ने कोठरी में गम्भीर भाव से
प्रवेश किया। कुछ जरूरी कागजात पर लिखा-पढ़ी की गई और कैदी को सुना दिया गया कि उसकी अपील नामंजूर हो गई है और आरोग्य-लाभ होते ही उसे फाँसी दे दी जाएगी।

कैदी ने आँख बन्द करके सुना-समझा और फिर उसकी आँखें एकटक छत पर अटक गईं।

धीरे-धीरे दोनों कमरे से बाहर निकल आए। इसके कुछ क्षण बाद ही डॉक्टर ने कमरे में प्रवेश करके सावधानी से रोग-परीक्षा की। फिर एक-दो मीठी बातों के बाद कहा-तु्म्हारी
स्त्री ओर बच्चे तुमसे मिलने आए हैं। रोगी एक बार तड़पा और नेत्र उठा कर बाहर की ओर देखने लगा।

डॉक्टर ने कहा-इस समय ज्वर नहीं है। मैं आशा करता हूँ, इसी सप्ताह में तुम अच्छे हो जाओगे।

'इसी सप्ताह में?' रोगी ने विकल होकर पूछा

डॉक्टर ने अपनी बात का समर्थन किया और धीरे-धीरे चला गया।

दस बज रहे थे। धूप खूब फैली हुई थी। जेल के सदर फाटक पर वह अभागिनी रमणी दोनों बच्चों को साथ लिए बैठी थी। उसे लगभग डेढ़ घंटा हो गया था। वह अपने पति के दर्शन
करने आई थी। इतनी देर बाद एक वार्डर उन्हें जेल के भयानक फाटक में लेकर चला।

फाटक को पार करने पर एक अन्धकारपूर्ण दालान में वे लोग चले। वहाँ से एक अँधेरी गली में कुछ देर चल कर एक लोहे का छोटा सा फाटक वार्डर ने पास के भारी चाबियों
के गुच्छे से खोला। इसके बाद वे कुछ सीढ़ियाँ चढ़ कर एक बड़े से गन्दे दालान में पहुँचे। उसके सामने ही बड़े से मकान का पिछवाड़ा था, जिसकी ऊँची और छोटी-छोटी
खिड़कियों से कुछ शोर-गुल और बक-झक की आवाज आ रही थी। सामने कुछ कैदी अपनी बेड़ियाँ झनझनाते इधर-उधर जा रहे थे। थोड़ी दूर चल ने पर उन्हें अस्पताल की काली इमारत
दीख पड़ी, जहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार के रोगी बिछौने पर पड़े थे। कमरे की हवा गर्म और बदबूदार थी। बिस्तरे फटे-कटे, मैले-कुचैले और घृणित थे। यह सब देखते-देखते
रमणी का सिर चक्कर खा गया। वह घबरा कर वहीँ बैठ गई, यह सब देख छोटी बच्ची रो उठी। थोड़ी देर बाद वह उठी और इस बार स्वामी की कोठरी के पास पहुँच गई। पर भीतर
ऑफीसर लोग थे। उसे कुछ देर ठहरना पड़ा। उनके निकलने पर डॉक्टर ने भीतर प्रवेश किया और डॉक्टर ने बाहर आकर उन लोगों को भीतर जाने की इजाजत दी।

दरवाजे के निकट जाकर उसके पैर धरती पर जम गए। पहले तो वह पति को देख ही न पाई। पीछे उसने साहस करके एक बार देखा। हाय...यही क्या उसके पतिदेव हैं? जीवन के ग्यारह
वर्ष सर्द-गर्म जिनके साथ व्यतीत किए, वह उठता हुआ यौवन, वे जीवन की उदीप्त अभिलाषाएँ, वे रस-रहस्य की अमिट रूप रेखाएँ हठपूर्वक एक के बाद एक नेत्रों के सामने
आने लगीं। उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, वह वहीं बैठ गई।

रोगी ने देखा। उसने चारपाई से उठ कर दोनों हाथ फैला कर उन्मत्त की तरह कहा-आओ बेटा...अरे, तुम इतने ही दिन में बिना बाप के ऐसे हो गए...यह कह कर रोगी-कैदी ने
अपनी भुजाओं में बच्चे को जोर से लपेट लिया और वह फूट-फूट कर रोने लगा।

सती बैठी ही बैठी आगे बढ़ी। वह पति के दोनों पैर पकड़, उन पर सिर धर कर मूर्च्छित हो गई। वह रो नहीं रही थी। वह संज्ञा-हीन थी। यह सब देख कर छोटी बालिका भी
जोर से रो उठी।

उसे गोद में लेकर पिता रोना भूल गया। उसकी आँखों में क्षण भर आँख मिला कर वह हँसी थी। अन्त में उसने भर्राई आवाज में कहा-लीला, मेरी बेटी, मेरी बिटिया...।

इसके बाद उसे छाती से लगा कर कैदी चुपचाप रोने लगा। बड़ी देर तक सन्नाटा रहा। फिर बच्चों को अलग करके वह स्वस्थ होकर पत्नी की ओर देखने लगा। बलपूर्वक उसने शोक
के उमड़ते वेग को रोका। उसने क्षण भर आकाश में दृष्टि करके एक बार सर्वशक्तिमान परमेश्वर से बल-याचना की। फिर उसने मधुर स्वर में कहा-इतना अधीर मत हो। ध्यान
से मेरी बात सुनो।

रमणी ने सिर नहीं उठाया। पति ने धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-नादानी न करना, वरना इन बच्चों का कहीं ठिकाना नहीं है। ईश्वर पर विश्वास रखो-मेरा
विनोद ब़ड़ा होकर तुम्हारे सभी संकट काटेगा। 'सब दिन होत न एक समान...।'

साध्वी सिसक-सिसक कर रो रही थी। उसे ढाढ़स देना कठिन था, परन्तु अभी कुछ मिनिट प्रथम मृत्यु का सन्देश पाकर भी कैदी वह कठिन काम कर रहा था।

वह पूछना चाहती थी-'क्या अब कुछ भी आशा नहीं है?' परन्तु उसमें बोलने और पति को देखने तक का साहस न था। समस्त साहस बटोर कर उसने एक बार पति की ओर आँख भर कर
देखा। वे आँखें आँसू और प्रश्नों से परिपूर्ण, मूक वेदना से अन्धी और मृत अभिलाषाओं की श्मसान-भूमि...प्रतिक्षण क्या-क्या कह रही थी?

परन्तु मानव-हृदय जितना सुख में दुर्बल बन जाता है, उतना ही दुख में सबल हो जाता है। मास्टर साहब ने उसका हाथ पक़ड़ कर कहा-अब इस तरह मुझे देख कर, इस दशा में
कायर न बनाओ...तुम बच्चों की माता हो। जैसे पति की पत्नी रहीं वैसे ही बच्चों की माँ बनना...प्रतीक्षा करो, तुमने मुझे कभी नहीं ठगा, अब भी न ठगना।

सती की वाणी फटी, उसने कहा-स्वामी जी...मुझे सहारा दो। मैं चलूँगी, नहीं...मैं चलूँगी।

एक अति मधुर उन्माद उसके होठों पर फड़क रहा था। मास्टर साहब विचलित हुए, उन्होंने संकोच त्याग, धीरे से उस उन्मुख उन्माद का एक सरल चुंबन लिया। वह वासनाहीन,
इन्द्रिय-विषय और शरीर-भावना से रहित चुंबन क्या था, दो अमर तत्व प्रतिबिम्बित हो रहे थे।

मास्टर साहब ने कुछ कहने की इच्छा से होंठ खोले थे, पर वार्डर ने कर्कश आवाज में कहा-चलो, वक्त हो गया।

रोगी कैदी ने मानो धाक खाकर एक बार उसे देखा, और कहा-ज़रा और ठहर जाओ भाई।

'हुक्म नहीं है' कह कर वह भीतर घुस आया। उसने एकदम रमणी के सिर पर खड़े होकर कहा-बाहर जाओ।

लज्जा और संकोच त्याग कर वह कुछ कहा चाहती थी, मास्टर जी ने संकेत से कहा-'उससे कुछ मत कहना..अच्छा...अब विदा प्रिये...बेटे...अम्माँ को दुखी न करना, मेरी बिटिया...'
यह कह कर और एक बार बेसब्री से उन्होंने उसे पकड़ कर अनगिनत चुंबन ले डाले।

रमणी की गम्भीरता अब न रह सकी। वह गाय की तरह डकराती वहीं गिर गई और निष्ठुर वार्डर ने उसे घसीट कर बाहर किया और ताला बन्द कर दिया, दोनों बच्चे चीत्कार कर
रो उठे। यह देख कर मास्टर साहब असह्य-वेदना से मूर्च्छित होकर धड़ाम से चारपाई पर गिर पड़े।

रविवार ही की संध्या को इसकी सूचना अभागिनी को दे दी गई थी। वह रात-भर धरती में पड़ी रही, क्षण भर को भी उसकी आँखों में नींद नहीं आई थी। चार दिन से उसने जल
की एक बूँद भी मुँह में नहीं डाली थी।

सोमवार को प्रातःकाल बड़ी सर्दी थी। घना कोहरा छाया हुआ था। ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही थी। ठीक साढ़े छह बजे का वह समय नियत किया गया था। ठीक समय पर फाँसी का जुलूस
अन्ध-कोठरी से चला। मास्टर साहब धीर-गम्भीर गति से आगे बढ़ रहे थे। इस समय उन्होंने हजामत बनवाई थी। वे अपने निजी वस्त्र पहने थे। दूर से देखने में दुर्बल होने
के सिवा और कुछ अन्तर न दीखता था। वे मानो किसी गहन विषय को सोचते हुए व्याख्यान देने रंग-मंच पर आ रहे थे। उनके आगे खुली पुस्तक हाथ में लिए पादरी कुछ वाक्य
उच्चारण कर रहा था। उनके पीछे जेलर अपनी पूरी पोशाक में थे। उनकी बगल में मैजिस्ट्रेट और डॉक्टर भी चल रहे थे। क्षण भर तख्ते पर खड़े रहने के बाद जल्लाद ने
उनके गले में रस्सी डाल दी। पादरी ने कहा-मैं प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शाँति प्रदान करे।

मास्टर साहब ने कहा-चुप रहो, मैं प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर मेरी आत्मा को ज्वलन्त अशान्ति दे, जो तब तक न मिटे, जब तक मेरा देश स्वाधीन न हो जाय, और मेरे
देश का प्रत्येक व्यक्ति शान्ति न प्राप्त कर ले।

इसके बाद उन्होंने गीता की पुस्तक को हाथ में लेकर आँखों और मस्तक से लगाया और दोनों हाथों में लेकर पीछे हाथ कर लिए। जल्लाद ने उसी दशा में हाथ पीछे बाँध दिए।
मास्टर साहब नेत्र बन्द करके कुछ अस्फुट उच्चारण करने लगे। जल्लाद ने तभी एक काली टोपी से उनका मुँह ढँक दिया, और वह चबूतरे से नीचे कूद पड़ा। पादरी कुछ उच्चारण
करने लगे। मैजिस्ट्रेट और जेलर ने टोपियाँ उतार लीं। हठात् तख्ती खींच ली गई, और उनका विवश शरीर शून्य में झूलने और छटपटाने लगा। पर थोड़ी देर में आवेग शान्त
हो गया।

० ० ०

इस घटना के आधा घंटा बाद वही पूर्व परिचित भद्र पुरुष (?) लपके हुए, सती की कुटिया पर गए। द्वार खुले थे। भीतर दोनों बच्चे बेतहाशा रो रहे थे, और उनकी माता
रसोई के कमरे में एक रस्सी के सहारे निर्जीव लटक रही थी।

सोमवार, 12 जनवरी 2015

यह कहानी नहीं / अमृता प्रीतम

पत्थर और चूना बहुत था, लेकिन अगर थोड़ी-सी जगह पर दीवार की तरह उभरकर खड़ा हो जाता, तो घर की दीवारें बन सकता था। पर बना नहीं। वह धरती पर फैल गया, सड़कों
की तरह और वे दोनों तमाम उम्र उन सड़कों पर चलते रहे....

सड़कें, एक-दूसरे के पहलू से भी फटती हैं, एक-दूसरे के शरीर को चीरकर भी गुज़रती हैं, एक-दूसरे से हाथ छूड़ाकर गुम भी हो जाती हैं, और एक-दूसरे के गले से लगकर
एक-दूसरे में लीन भी हो जाती थीं। वे एक-दूसरे से मिलते रहे, पर सिर्फ तब, जब कभी-कभार उनके पैरों के नीचे बिछी हुई सड़कें एक-दूसरे से आकर मिल जाती थीं।

घड़ी-पल के लिए शायद सड़कें भी चौंककर रुक जाती थीं, और उनके पैर भी...

और तब शायद दोनों को उस घर का ध्यान आ जाता था जो बना नहीं था...

बन सकता था, फिर क्यों नहीं बना? वे दोनों हैरान-से होकर पाँवों के नीचे की ज़मीन को ऐसे देखते थे जैसे यह बात उस ज़मीन से पूछ रहे हों...

और फिर वे कितनी ही देर ज़मीन की ओर ऐसे देखने लगते मानों वे अपनी नज़र से ज़मीन में उस घर की नींवें खोद लेंगे।...

और कई बार सचमुच वहाँ जादू का एक घर उभरकर खड़ा हो जाता और वे दोनों ऐसे सहज मन हो जाते मानों बरसों से उस घर में रह रहे हों...

यह उनकी भरपूर जवानी के दिनों की बात नहीं, अब की बात है, ठण्डी उम्र की बात, कि अ एक सरकारी मीटिंग के लिए स के शहर गई। अ को भी वक्त ने स जितना सरकारी ओहदा
दिया है, और बराबर की हैसियत के लोग जब मीटिंग से उठे, सरकारी दफ्तर ने बाहर के शहरों से आने वालों के लिए वापसी टिकट तैयार रखे हुए थे, स ने आगे बढ़कर अ का
टिकट ले लिया, और बाहर आकर अ से अपनी गाड़ी में बैठने के लिए कहा।

पूछा - “सामान कहाँ है?”

“होटल में।”

स ने ड्राइवर से पहले होटल और फिर वापस घर चलने के लिए कहा।

अ ने आपत्ति नहीं की, पर तर्क के तौर पर कहा - “प्लेन में सिर्फ दो घंटे बाकी हैं, होटल होकर मुश्किल से एयरपोर्ट पहुँचूँगी।”

“प्लेन कल भी जाएगा, परसों भी, रोज़ जाएगा।” स ने सिर्फ इतना कहा, फिर रास्ते में कुछ नहीं कहा।

होटल से सूटकेस लेकर गाड़ी में रख लिया, तो एक बार अ ने फिर कहा -

“वक्त थोड़ा है, प्लेन मिस हो जाएगा।”

स ने जवाब में कहा - “घर पर माँ इन्तज़ार कर ही होगी।”

अ सोचती रही कि शायद स ने माँ को इस मीटिंग का दिन बताया हुआ था, पर वह समझ नहीं सकी - क्यों बताया था?

अ कभी-कभी मन से यह ‘क्यों’ पूछ लेती थी, पर जवाब का इन्तज़ार नहीं करती थी। वह जानती थी - मन के पास कोई जवाब नहीं था। वह चुप बैठी शीशे में से बाहर शहर की
इमारतों के देखती रही...

कुछ देर बाद इमारतों का सिलसिला टूट गया। शहर से दूर बाहर आबादी आ गई, और पाम के बड़े-बड़े पेड़ों की कतारें शुरु हो गईं...

समुद्र शायद पास ही था, अ के साँस नमकीन-से हो गए। उसे लगा-पाम के पत्तों की तरह उसके हाथों में कम्पन आ गया था-शायद स का घर भी अब पास था...

पेड़ों-पत्तों में लिपटी हुई-सी कॉटेज के पास पहुँचकर गाड़ी खड़ी हो गई। अ भी उतरी, पर कॉटेज के भीतर जाते हुए एक पल के लिए बाहर केले के पेड़ के पास खड़ी हो
गई। जी किया - अपने काँपते हुए हाथों को यहाँ बाहर केले के काँपते हुए पत्तों के बीच में रख दे। वह स के साथ भीतर कॉटेज में जा सकती थी, पर हाथों की वहाँ ज़रूरत
नहीं थी - इन हाथों से न वह अब स को कुछ दे सकती थी, न स से कुछ ले सकती थी...

माँ ने शायद गाड़ी की आवाज़ सुन ली थी, बाहर आ गईं। उन्होंने हमेशा की तरह माथा चूमा और कहा -”आओ, बेटी।”

इस बार अ बहुत दिनों बाद माँ से मिली थी, पर माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए - जैसे सिर पर बरसों का बोझ उतार दिया हो - और उसे भीतर ले जाकर बिठाते हुए उससे
पूछा -”क्या पियोगी, बेटी?”

स भी अब तक भीतर आ गया था, माँ से कहने लगा - “पहले चाय बनवाओ, फिर खाना।”

अ ने देखा - ड्राइवर गाड़ी से सूटकेस अन्दर ला रहा था। उसने स की ओर देखा, कहा - “बहुत थोड़ा वक्त है, मुश्किल से एयरपोर्ट पहुँचूँगी।”

स ने उससे नहीं, ड्राइवर से कहा - “कल सवेरे जाकर परसों का टिकट ले आना।” और माँ से कहा -”तुम कहती थीं कि मेरे कुछ दोस्तों को खाने पर बुलाना है, कल बुला लो।”


अ ने स की जेब की ओर देखा जिसमें उसका वापसी का टिकट पड़ा हुआ था, कहा -”पर यह टिकट बरबाद हो जाएगा...”

माँ रसोई की तरफ जाते हुए खड़ी हो गई, और अ के कन्धे पर अपना हाथ रखकर कहने लगी -”टिकट का क्या है, बेटी! इतना कह रहा है, रुक जाओ।”

पर क्यों? अ के मन में आया, पर कहा कुछ नहीं। कुर्सी से उठकर कमरे के आगे बरामदे में जाकर खड़ी हो गई। सामने दूर तक पाम के ऊँचे-ऊँचे पेड़ थे। समुद्र परे था।
उसकी आवाज़ सुनाई दे रही थी। अ को लगा - सिर्फ आज का ‘क्यों’ नहीं, उसकी ज़िन्दगी के कितने ही ‘क्यों’ उसके मन के समुद्र के तट पर इन पाम के पेड़ों की तरह उगे
हुए हैं, और उनके पत्ते अनेक वर्षों से हवा में काँप रहे हैं।

अ ने घर के मेहमान की तरह चाय पी, रात को खाना खाया, और घर का गुसलखाना पूछकर रात को सोने के समय पहनने वाले कपड़े बदले। घर में एक लम्बी बैठक थी, ड्राइंग-डाइनिंग,
और दो और कमरे थे - एक स का, एक माँ का। माँ ने ज़िद करके अपना कमरा अ को दे दिया, और स्वयं बैठक में सो गई।

अ सोने वाले कमरे में चली गई, पर कितनी ही देर झिझकी हुई-सी खड़ी रही। सोचती रही - मैं बैठक में एक-दो रातें मुसाफिरों की तरह ही रह लेती, ठीक था, यह कमरा माँ
का है, माँ को ही रहना चाहिए था...

सोने वाले कमरे के पलंग में, पद… में, और अलमारी में एक घरेलू-सी बू-बास होती है, अ ने इसका एक घूँट-सा भरा। पर फिर अपना साँस रोक लिया मानो अपने ही साँसो से
डर रही हो...

बराबर का कमरा स का था। कोई आवाज़ नहीं थी। घड़ी पहले स ने सिर-दर्द की शिकायत की थी, नींद की गोली खाई थी, अब तक शायद सो गया था। पर बराबर वाले कमरों की भी
अपनी बू-बास होती है, अ ने एक बार उसका भी घूँट पीना चाहा, पर साँस रुका रहा।

फिर अ का ध्यान अलमारी के पास नीचे फर्श पर पड़े हुए अपने सूटकेस की ओर गया, और उसे हँसी-सी आ गई - यह देखो मेरा सूटकेस, मुझे सारी रात मेरी मुसाफिरी की याद
दिलाता रहेगा...

और वह सूटकेस की ओर देखते हुए थकी हुई-सी, तकिए पर सिर रखकर लेट गई...

न जाने कब नींद आ गई। सोकर जागी तो खासा दिन चढ़ा हुआ था। बैठक में रात को होने वाली दावत की हलचल थी।

एक बार तो अ की आँखें झपककर रह गईं - बैठक में सामने स खड़ा था। चारखाने का नीले रंग का तहमद पहने हुए। अ ने उसे कभी रात के सोने के समय के कपड़ों में नहीं
देखा था। हमेशा दिन में ही देखा था - किसी सड़क पर, सड़क के किनारे, किसी कैफे में, होटल में, या किसी सरकारी मीटिंग में - उसकीयह पहचान नई-सी लगी। आँखों में
अटक-सी गई...

अ ने भी इस समय नाइट सूट पहना हुआ था, पर अ ने बैठक में आने से पहले उस पर ध्यान नहीं दिया था, अब ध्यान आया तो अपना-आप ही अजीब लगा - साधारण से असाधारण-सा
होता हुआ...

बैठक में खड़ा हुआ स, अ को आते हुए देखकर कहने लगा -”ये दो सोफे हैं, इन्हें लम्बाई के रुख रख लें। बीच में जगह खुल्ी हो जाएगी।”

अ ने सोफों को पकड़वाया, छोटी मेज़ों को उठाकर कुiस्¥यों के बीच में रखा। फिर माँ ने चौके से आवाज़ दी तो अ ने चाय लाकर मेज़ पर रख दी।

चाय पीकर स ने उससे कहा -”चलो, जिन लोगों को बुलाना है, उनके घर जाकर कह आएँ और लौटते हुए कुछ फल लेते आएँ।”

दोनों ने पुराने परिचित दोस्तों के घर जाकर दस्तक दी, सन्देशे दिए, रास्ते से चीज़्ों खरीदीं, फिर वापस आकर दोपहर का खाना खाया, और फिर बैठक को फूलों से सजाने
में लग गए।

दोनों ने रास्ते में साधारण-सी बातें की थीं - फल कौन-कौन-से लेने हैं? पान लेने हैं या नहीं? iड्रंक्स के साथ के लिए कबाब कितने ले लें? फलाँ का घर रास्ते
में पड़ता है, उसे भी बुला लें? - और यह बातें वे नहीं थीं जो सात बरस बाद मिलने वाले करते हैं।
अ को सवेरे दोस्तों के घर पर पहली-दूसरी दस्तक देते समय ही सिर्फ थोड़ी-सी परेशानी महसूस हुई थी। वे भले ही स के दोस्त थे, पर एक लम्बे समय से अ को जानते थे,
दरवाज़ा खोलने पर बाहर उसे स के साथ देखते तो हैरान-से हो कह उठते -”आप।”

पर वे जब अकेले गाड़ी में बैठते, तो स हँस देता -”देखा, कितना हैरान हो गया, उससे बोला भी नहीं जा रहा था।”

और फिर एक-दो बार के बाद दोस्तों की हैरानी भी उनकी साधारण बातों में शामिल हो गई। स की तरह अ भी सहज मन से हँसने लगी।

शाम के समय स ने छाती में दर्द की शिकायत की। माँ ने कटोर में ब्राण्डी डाल दी, और अ से कहा -”लो बेटी! यह ब्राण्डी इसकी छाती पर मल दो।”

इस समय तक शायद इतना कुछ सहज हो चुका था, अ ने स की कमीज़ के ऊपर वाले बटन खोले, और हाथ से उसकी छाती पर ब्राण्डी मलने लगी।

बाहर पाम के पेड़ों के पत्ते और केलों के पत्ते शायद अभी भी काँप रहे थे, पर अ के हाथ में कम्पन नहीं था। एक दोस्त समय से पहले आ गया था, अ ने ब्राण्डी में
भीगे हुए हाथों से उसका स्वागत करते हुए नमस्कार भी किया, और फिर कटोरी में हाथ डोबकर बाकी रहती ब्राण्डी को उसकी गर्दन पर मल दिया - कन्धों तक।

धीरे-धीरे कमरा मेहमानों से भर गया। अ फ्रिज सर बरफ निकालती रही और सादा पानी भर-भर फ्रिज में रखती रही। बीच-बीच में रसोई की तरफ जाती, ठण्डे कबाब फिर से गर्म
करके ले आती। सिर्फ एक बार जब स ने अ के कान के पास होकर कहा -”तीन-चार तो वे लोग बी आ गए हैं, जिन्हें बुलाया नहीं था। ज़रूर किसी दोस्त ने उनसे भी कहा होगा,
तुम्हें देखने के लिए आ गए हैं” - तो पल-भर के लिए अ की स्वाभाविकता टूटी, पर फिर जब स ने उससे कुछ गिलास धोने के लिए कहा, तो वह उसी तरह सहज मन हो गई।

महफिल गर्म हुई, ठंडी हुई, और जब लगभग आधी रात के समय सब चले गए, अ को सोने वाले कमरे में जाकर अपने सूटकेस में से रात के कपड़े निकालकर पहनते हुए लगा - कि
सड़कों पर बना हुआ जादू का घर अब कहीं भी नहीं था....

यह जादू का घर उसने कई बार देखा था - बनते हुए भी, मिटते हुए भी, इसलिए वह हैरान नहीं थी। सिर्फ थकी-थकी सी तकिए पर सिर रखकर सोचने लगी - कब की बात है... शायद
पचीस बरस हो गए- नहीं तीस बरस .... जब पहली बार वे ज़िन्दगी की सड़कों पर मिले थे - अ किस सड़क से आई थी, स कौन-सी सड़क से आया या, दोनों पूछना भी भूल गये थे,
और बताना भी। वे निगाह नीची किए ज़मीन में नींवें खोदते रहे, और फिर यहाँ जादू का एक घर बनकर खड़ा हो गया, और वे सहज मन से सारे दिन उस घर में रहते रहे।

फिर जब दोनों की सड़कों ने उन्हें आवाज़ें दीं, वे अपनी-अपनी सड़क की ओर जाते हुए चौंककर खड़े हो गए। देखा - दोनों सड़कों के बीच एक गहरी खाई थी। स कितनी देर
उस खाई की ओर देखता रहा, जैसे अ से पूछ रहा हो कि इस खाई को तुम किस तरह से पार करोगी? अ ने कहा कुछ नहीं था, पर स के हाथ की ओर देखा था, जैसे कह रही हो - तुम
हाथ पकड़कर पार करा लो, मैं महज़ब की इस खाई को पार कर जाऊँगी।

फिर स का ध्यान ऊपर की ओर गया था, अ के हाथ की ओर। अ की उँगली में हीरे की एक अँग्ïठी चमक रही थी। स कितनी देर तक देखता रहा, जैसे पूछ रहा हो - तुम्हारी उँगली
पर यह जो कान्ïन का धागा लिपटा हुआ है, मैं इसका क्या करूँगा? अ ने अपनी उँगली की ओर देखा था और धीरे से हँस पड़ी थी, जैसे कह रही हो - तुम एक बार कहो, मैं
कानून का यह धागा नाखूनों से खोल लूँगी। नाखूनों से नहीं खुलेगा तो दाँतों से खोल लूँगी।

पर स चुप रहा या, और अ भी चुप खड़ी रह गई थी। पर जैसे सड़कें एक ही जगह पर खड़ी हुई भी चलती रहती हैं, वे भी एक जगह पर खड़े हुए चलते रहे...

फिर एक दिन स के शहर से आने वाली सड़क अ के शहर आ गई थी, और अ ने स की आवाज़ सुनकर अपने एक बरस के बच्चे को उठाया था और बाहर सड़क पर उसके पास आकर खड़ी हो गई
थी। स ने धीरे से हाथ आगे करके सोए हुए बच्चे को अ से ले लिया था और अपने कन्धे से लगा लिया था। और फिर वे सारे दिन उस शहर की सड़कों पर चलते रहे...

वे भरपूर जवानी के दिन थे - उनके लिए न धूप थी, न ड। और फिर जब चाय पीने के लिए वे एक कैफे में गए तो बैरे ने एक मर्द, एक औरत और एक बच्चे को देखकर एक अलग कोने
की कुर्सियाँ पोंछ दी थीं। और कैफे के उस अलग कोने में एक जादू का घर बनकर खड़ा हो गया था...

और एक बार... अचानक चलती हुई रेलगाड़ी में मिलाप हो गया था। स भी था, माँ भी, और स का एक दोस्त भी। अ की सीट बहुत दूर थी, पर स के दोस्त ने उससे अपनी सीट बदल
ली थी और उसका सूटकेस उठाकर स के सूटकेस के पास रख दिया था। गाड़ी में दिन के समय ठंड नहीं थी, पर रात ठंडी थी। माँ ने दोनों को एक कम्बल दे दिया था। आधा स
के लिए आधा अ के लिए। और चलती गाड़ी में उस साझे के कम्बल के किनारे जादू के घर की दीवारें बन गई थीं...

जादू की दीवारें बनती थीं, मिटती थीं, और आखिर उनके बीच खँडहरों की-सी खामोशी का एक ढेर लग जाता था...

स को कोई बन्धन नहीं था। अ को था। पर वह तोड़ सकती थी। फिर यह क्या था कि वे तमाम उम्र सड़कों पर चलते रहे...

अब तो उम्र बीत गई... अ ने उम्र के तपते दिनों के बारे में भी सोचा और अब के ठण्डे दिनों के बारे में भी। लगा - सब दिन, सब बरस पाम के पत्तों की तरह हवा में
खड़े काँप रहे थे।

बहुत दिन हुए, एक बार अ ने बरसों की खामोशी को तोड़कर पूछा था - “तुम बोलते क्यों नहीं? कुछ भी नहीं कहते। कुछ तो कहो।”

पर स हँस दिया था, कहने लगा -”यहाँ रोशनी बहुत है, हर जगह रोशनी होती है, मुझसे बोला नहीं जाता।”

और अ का जी किया था - वह एक बार सूरज को पकड़कर बुझा दे...

सड़कों पर सिर्फ दिन चढ़ते हैं। रातें तो घरों में होती हैं... पर घर कोई था नहीं, इसलिए रात भी कहीं नहीं थी - उनके पास सिर्फ सड़कें थीं, और सूरज था, और स
सूरज की रोशनी में बोलता नहीं था।

एक बार बोला था...

वह चुप-सा बैठा हुआ था जब अ ने पूछा था -”क्या सोच रहे हो?” तो वह बोला - “सोच रहा हूँ, लड़कियों से फ्लर्ट करूँ और तुम्हें दुखी करूँ।”

पर इस तरह अ दुखी नहीं, सुखी हो जाती। इसलिए अ भी हँसने लगी थी, स भी।

और फिर एक लम्बी खामोशी...

कई बार अ के जी में आता था -हाथ आगे बढ़ाकर स को उसकी खामोशी में से बाहर ले आए, वहाँ तक जहाँ तक दिल का दर्द है। पर वह अपने हाथों को सिर्फ देखती रहती थी,
उसने हाथों से कभी कुछ कहा नहीं था।

एक बार स ने कहा था -”चलो चीन चलें।”

“चीन?”

“जाएँगे, पर आएँगे नहीं।”

“पर चीन क्यों?”

यह ‘क्यों’ भी शायद पाम के पेड़ के समान था जिसके पत्ते फिर हवा में काँपने लगे...

इस समय अ ने तकिए पर सिर रख हुआ था, पर नींद नहीं आ रही थी। स बराबर के कमरे में सोया हुआ था, शायद नींद की गोली खाकर।

अ को न अपने जागने पर गुस्सा आया, न स की नींद पर। वह सिर्फ यह सोच रही थी - कि वे सड़कों पर चलते हुए जब कभी मिल जाते हैं तो वहाँ घड़ी-पहर के लिए एक जादू
का घर क्यों बनकर खड़ा हो जाता है?

अ को हँसी-सी आ गई - तपती हुई जवानी के समय तो ऐसा होता था, ठीक है, लेकिन अब क्यों होता है? आज क्यों हुआ?

यह न जाने क्या था, जो उम्र की पकड़ में नहीं आ रहा था...

बाकी रात न जाने कब बीत गई - अब दरवाज़े पर धीरे से खटका करता हुआ ड्राइवर कह रहा या कि एयरपोर्ट जाने का समय हो गया है...

अ ने साड़ी पहनी, सूटकेस उठाया, स भी जागकर अपने कमरे से आ गया, और वे दोनों दरवाज़े की ओर बढ़े जो बाहर सड़क की ओर खुलता था...

ड्राइवर ने अ के हाथ से सूटकेस ले लिया था, अ को अपने हाथ और खाली-खाली से लगे। वह दहलीज़ के पास अटक-सी गई, फिर जल्दी से अन्दर गई और बैठक में सोई हुई माँ
को खाली हाथों से प्रणाम करके बाहर आ गई...

फिर एयरपोर्ट वाली सड़क शुरु हो गई, खत्म होने को भी आ गई, पर स भी चुप था, अ भी...

अचानक स ने कहा -”तुम कुछ कहने जा रही थीं?”

“नहीं।”

और वह फिर चुप हो गया।

फिर अ को लगा - शायद स को भी - कि बहुत-कुछ कहने को था, बहुत-कुछ सुनने को, पर बहुत देर हो गई थी, और अब सब शब्द ज़मीन में गड़ गए थे - पाम के पेड़ बन गए थे
और मन के समुद्र के पास लगे हुए उन पेड़ों के पत्ते शायद तब तक काँपते रहेंगे जब तक हवा चलती रहेगी..

एयरपोर्ट आ गया और पाँवों के नीचे स के शहर की सड़क टूट गई....

शनिवार, 10 जनवरी 2015

इन्दु की बेटी / अज्ञेय


जब गाड़ी खचाखच लदी होने के कारण मानो कराहती हुई स्टेशन से निकली, तब रामलाल ने एक लम्बी साँस लेकर अपना ध्यान उस प्राण ले लेनेवाली गर्मी, अपने पसीने से तर
कपड़ों और साथ बैठे हुए नंगे बदनवाले गँवार के शरीर की बू से हटाकर फिर अपने सामने बैठी हुई अपनी पत्नी की ओर लगाया; और उसकी पुरानी कुढ़िन फिर जाग उठी।

रामलाल की शादी हुए दो बरस हो चले हैं। दो बरस में शादी का नयापन पुराना हो जाता है, तब गृहस्थी का सुख नयेपन के अलावा जो दूसरी चीज़ें होती हैं, उन्हीं पर
निर्भर करता है। मातृत्व या पितृत्व की भावना, समान रुचियाँ, इकट्ठे बिताये हुए दिनों की स्मृतियाँ, एक-दूसरे को पहुँचाये गये, सुख-क्लेश की छाप-नयापन मिट जाने
के बाद ये और ऐसी चीजें ही ईंटें होती हैं, जिनसे गृहस्थी की भीत खड़ी होती है। और रामलाल के जीवन में ये सब जैसे थे ही नहीं। उसके कोई सन्तान नहीं थी, जहाँ
तक उसके दाम्पत्य जीवन के सुख-दुःख की उसे याद थी, ‘वहाँ तक उसे यही दीखता था कि उन्होंने एक-दूसरे को कुछ दिया है तो क्लेश ही दिया है। इससे आगे थोड़ी-बहुत
मामूली सहूलियत एक-दूसरे के लिए पैदा की गयी है, लेकिन उसका शिथिल दिमाग उन चीज़ों को सुख कहने को तैयार नहीं है। उदाहरणतया वह कमाकर कुछ लाता रहा है, और स्त्री
रोटी पकाकर देती रही है, कपड़े धोती रही है, झाड़ू लगाती रही है, चक्की भी पीसती रही है। क्या इन चीज़ों का नाम सुख है? क्या उसने शादी इसलिए की थी कि एक महरी
उसे मिल जाये और वह खुद एक दिन से दूसरा दिन कर ले कि चख-चख में बच जाय और बस? क्या उसने बी.ए. तक पढ़ाई इसीलिए की थी हर महीने बीस-एक रुपल्लियाँ कमाकर इसके
आगे लाकर पटक दिया करे कि ले, इस कबाड़-खाने को सँभाल और इस ढाबे को चलता रख! - इस गँवार को, अनपढ़, बेवकूफ़ औरत के आगे जो चक्की पीसने और झाड़ू लगाने से अधिक
कुछ नहीं जानती और यह नहीं समझती कि एक पढ़े-लिखे आदमी की भूख दो वक्त की रोटी के अतिरिक्त कुछ और भी माँगती है!

उसकी खीझ एकाएक बढ़कर क्रोध बन गयी। स्त्री की ओर से आँख हटाकर वह सोचने लगा, इसका यह नाम किसने रखा? इन्दु! कैसा अच्छा नाम है - जाने किस बेवकूफ ने यह नाम
इसे देकर डुबाया! और कुछ नहीं तो सुन्दर ही होती, रंग ही कुछ ठीक होता!

लेकिन जब यह पहले-पहल मेरे घर आयी थी, तब तो मुझे इतनी बुरी नहीं लगी थी! क्यों मैंने इसे कहा था कि मैं अपने जीवन का सारा, बोझ तुम्हें सौंपकर निश्चिन्त हो
जाऊँगा - कैसे कह पाया था कि जो जीवन मुझसे अकेले चलाये नहीं चलता, वह तुम्हारा साथ पाकर चल जाएगा? पर मैं तब इसे जानता कब था - मैं तो समझता था कि-

रामलाल ने फिर एक तीखी दृष्टि से इन्दु की ओर देखा और फौरन आँखें हटा लीं। तत्काल ही उसे लगा कि यह अच्छा हुआ कि इन्दु ने वह दृष्टि नहीं देखी। उसमें कुछ उस
अहीर का-सा भाव था जो मंडी से एक हट्टी-कट्टी गाय खरीदकर लाये और घर आकर पाये कि वह दूध ही नहीं देती।

तभी गाड़ी की चाल फिर धीमी हो गयी। रामलाल अपने पड़ोसी गँवार की ओर देखकर सोच ही रहा था कि कौन-सी वीभत्स गाली हर स्टेशन पर खड़ी हो जानेवाली इस मनहूस गाड़ी
को दे, कि तभी उसकी स्त्री ने बाहर झाँककर कहा, “स्टेशन आ गया!”

रामलाल की कुढ़न फिर भभक उठी। भला यह भी कोई कहने की बात है? कौन गधा नहीं जानता कि स्टेशन आ रहा है? अब क्या यह भी सुनना होगा कि गाड़ी रुक गयी। गार्ड ने सीटी
दी। हरी झंडी हिल रही है। गाड़ी चल पड़ी...

लेकिन मैं इस पर क्यों खीझता हूँ? इस बिचारी का दिमाग जहाँ तक जाएगा, वहीं तक की बात वह करेगी न! अब मैं उससे आशा करूँ कि इस समय वह मेघ-दूर मुझे सुनाने लग
जाए और वह इस आशा को पूरा न करे तो क्या कसूर है?

लेकिन मैंने उसे कभी कुछ कहा है? चुपचाप सब सहता आया हूँ। एक भी कठोर शब्द उसके प्रति मेरे मुँह से निकला हो तो मेरी जबान खींच ले। आखिर पढ़-लिखकर इतनी भी तमीज
न आयी तो पढ़ा क्या खाक? समझदार का काम है सहना। मैंने उससे प्यार से कभी बात नहीं की; लेकिन जो हृदय में नहीं है, उसका ढोंग करना नीचता है। क्रोध को दबाने
का यह मतलब थोड़े ही है कि झूठ-मूठ का प्यार दिखाया जाये?

गाड़ी रुक गयी। इन्दु ने बाहर की ओर देखते-देखते कहा, “प्यास लगी है...”

रामलाल को वह स्वर अच्छा नहीं लगा। उसमें ज़रा भी तो आग्रह नहीं था कि हे मेरे स्वामी, मैं प्यासी हूँ, मुझे पानी पिला दो! सीधे शब्दों में कहा नहीं तो खैर,
वह वहाँ तो ध्वनि भी नहीं है। ऐसा कहा है, जैसे मैं जता देती हूँ कि मैं प्यासी हूँ - आगे कोई पानी ला देगा तो मैं पी लूँगी। नहीं तो ऐसे भी काम चल जाएगा। इतनी
उत्सुक? मैं किसके लिए हूँ कि पानी लाने के लिए कह सकूँ? फिर भी रामलाल ने लोटा उठाया, बाहर झाँका और यह देखकर कि गाड़ी के पिछले सिरे के पास प्लेटफार्म पर
कुछ लोग धक्कमधक्का कर रहे हैं और एक-आध जो ज़रा अलग हैं, कान में टँगा हुआ जनेऊ उतार रहे हैं, वह उतरकर उधर को चल पड़ा।

वह मुझे ही कह देती कि पानी ला दो, तो क्या हो जाता? मैं जो कुछ बन पड़ता है, उसके लिए करता हूँ। अब अधिक नहीं कमा सकता तो क्या करूँ? गाँव में गुंजाइश ही इतनी
है। अब शहर में शायद कुछ हो-पर शहर में खर्च भी होगा।

मैं खर्च की परवाह न करके उसे अपने साथ लिए जा रहा हूँ-और होता तो गाँव में छोड़ जाता-शहर में अकेला आदमी कहीं भी रह सकता है, पर गृहस्थी लेकर तो-और उसे इतना
खयाल नहीं कि ठीक तरह बात ही करे-बात क्या करे, रोटी-पानी, पैसा माँग ही ले... क्या निकम्मेपन में भी अभिमान होता है?

रामलाल नल के निकट पहुँच गया।

2

गाड़ी ने सीटी दी और चल दी। रामलाल को यह नहीं सुनना पड़ा कि “हरी झंडी हिल रही है -गाड़ी चली” इन्दु ने कहा भी नहीं। गार्ड की सीटी हो जाने पर भी जब रामलाल
नहीं पहुँचा, तब इन्दु खिड़की के बाहर उझककर उत्कंठा से उधर देखने लगी, जिधर वह गया था। गाड़ी चल पड़ी, तब उसकी उत्कंठा घोर व्यग्रता में बदल गयी। लेकिन तभी
उसने देखा, एक हाथ में लोटा थामे रामलाल दौड़ रहा है। वह अपने डिब्बे तक तो नहीं पहुँच सकेगा, लेकिन पीछे के किसी डिब्बे में शायद बैठ गया।

इन्दु ने देखा कि रामलाल ने एक डिब्बे के दरवाजे पर आकर हैंडल पकड़ लिया है और उसी के सहारे दौड़ रहा है, लेकिन गाड़ी की गति तेज होने के कारण अभी चढ़ नहीं
पाया। कहीं वह रह गये तब? क्षण-भर के लिए एक चित्र उसके आगे दौड़ गया - परदेस में वह अकेली - पास पैसा नहीं, और उससे टिकट तलब किया जा रहा है और वह नहीं जानती
कि पति को कैसे सूचित करे कि वह कहाँ है। लेकिन क्षण-भर में ही इस डर का स्थान एक दूसरे डर ने ले लिया। कहीं वह उस तेज चलती हुई गाड़ी पर सवार होने के लिए कूदे
और- ...यह डर उससे नहीं सहा गया। वह जितना बाहर झुक सकती थी, झुककर रामलाल को देखने लगी - उसके पैरों की गति को देखने लगी... और उसके मन में यह होने लगा कि
क्यों उसने पति से प्यास की बात कही -यदि कुछ देर बैठी रहती तो मर न जाती...

एकाएक रामलाल गाड़ी के कुछ निकट आकर कूदा। इन्दु ज़रा और झुकी कि देखे, वह सवार हो गया कि नहीं और निश्चिन्त हो जाये। उसने देखा-

अन्धकार - कुछ डुबता-सा - एक टीस - जाँघ और कन्धे में जैसे भीषण आग - फिर एक -दूसरे प्रकार का अन्धकार।...

गाड़ी मानो विवश क्रोध से चिचियाती हुई रुकी कि अनुभूतियों से बँधे हुए इस क्षुद्र चेतन संसार की एक घटना के लिए किसी ने चेन खींचकर उस जड़, निरीह और इसलिए
अडिग शक्ति को क्यों रोक दिया है।

गाड़ी के रुकने का कारण समझ में उतरने से पहले ही रामलाल ने डिब्बे तक आकर देख लिया कि इन्दु उसमें नहीं है।

3

रेल का पहिया जाँघ और कन्धे पर से निकल गया था। एक आँख भी जाने क्यों बन्द होकर सूज आयी थी - बाहर कोई चोट दीख नहीं रही थी - और केश लहू में सनकर जटा-से हो
गये थे।

रामलाल ने पास आकर देखा और रह गया! ऐसा बेबस, पत्थर रह गया कि हाथ का एक लोटा भी गिरना भूल गया।

थोड़ी देर बाद जब ज़रा काँपकर इन्दु की एक आँख खुली और बिना किसी की ओर देखे ही स्थिर हो गयी और क्षीण स्वर ने कहा, “मैं चली”, तब रामलाल को नहीं लगा कि वे
दो शब्द विज्ञप्ति के तौर पर कहे गये हैं - उसे लगा कि उनमें खास कुछ है, जैसे वह किसी विशेष व्यक्ति को कहे गये हैं, और उनमें अनुमति माँगने का-सा भाव है...


उसने एकाएक चाहा कि बढ़कर लोटा इन्दु के मुँह से छुआ दे, लेकिन लोटे का ध्यान आते ही वह उसके हाथ से छूटकर गिर गया।

रामलाल उस आँख की ओर देखता रहा, लेकिन फिर वह झिपी नहीं। गाड़ी चली गयी। थोड़ी देर बाद एक डॉक्टर ने आकर एक बार शरीर की ओर देखा, एक बार रामलाल की ओर, एक बार
फिर उस खुली आँख की ओर, और फिर धीरे से पल्ला खींचकर इन्दु का मुँह ढक दिया।

4

गाड़ी ज़रा-सी देर रुककर चली गयी थी। दुनिया जरा भी नहीं रुकी। गाड़ी आदमी की बनायी हुई थी, दुनिया को बनानेवाला ईश्वर है।

बीस साल हो गये। घिरती रात में हरेक स्टेशन पर रुकनेवाली एक गाड़ी के सेकंड क्लास डिब्बे में रामलाल लेटा हुआ था। वह कलकत्ते से रुपया कमाकर लौट रहा था। आज
उसके मन में गाड़ी पर खीझ नहीं थी - आज वह यात्रा पर जा नहीं रहा था, लौट रहा था। और वह थका हुआ था।

एक छोटे स्टेशन पर वह एकाएक भड़भड़ाकर उठ बैठा। बाहर झाँककर देखा, कहीं कोई कुली नहीं था। वह स्वयं बिस्तर और बैग बाहर रखने लगा। तभी, स्टेशन के पाइंटमैन ने
आकर कहा, “बाबूजी, कहाँ जाइएगा?” छोटे स्टेशनों पर लाइनमैन और पाइंटमैन ही मौके-बे-मौके कुली का काम कर देते हैं। रामलाल ने कहा,”यहीं एक तरफ करके रख दो।”

“और कुछ सामान नहीं है?”

“बाकी ब्रेक में है, आगे जाएगा।”

“अच्छा।”

गाड़ी चली गयी। बूढ़े पाइंटमैन ने सामान स्टेशन के अन्दर ठीक से रख दिया। रामलाल बेंच पर बैठ गया। स्टेशन के एक कोने में एक बड़ा लैम्प जल रहा था, उसकी ओर पीठ
करके जाने क्या सोचने लग गया, भूल गया कि कोई उसके पास खड़ा है।

बूढ़े ने पूछा, “बाबूजी, कैसे आना हुआ?” ऐसा बढ़िया सूट-बूट पहननेवाला आदमी उसने उस स्टेशन पर पहले नहीं देखा था।

‘यों ही।”

“ठहरिएगा?”

“नहीं। अगली गाड़ी कब जाती है?”

“कल सवेरे। उसमें जाइएगा?”

“हाँ।”

“इस वक्त बाहर जाइएगा?”

“नहीं।”

“लेकिन यहाँ तो वेटिंग रूम नहीं है-”

“यहीं बेंच पर बैठा रहूँगा।”

बूढ़ा मन में सोचने लगा, यह अजब आदमी है, जो बिना वजह रात-भर यहाँ ठिठुरेगा और सवेरे चला जाएगा! पर अब रामलाल प्रश्न पूछने लगा-

“तुम यहाँ कबसे हो?”

“अजी, क्या बताऊँ-सारी उमर यहीं कटी है।”

“अच्छा! तुम्हारे होते यहाँ कोई दुर्घटना हुई?”

“नहीं-” कहकर बूढ़ा रुक गया। फिर कहने लगा, “हाँ, एक बार एक औरत रेल के नीचे आकर कट गयी थी-उधर प्लेटफार्म से ज़रा आगे।”

“हूँ।” रामलाल के स्वर में जैसे अरुचि थी, लेकिन बूढ़े अपने-आप-ही उस घटना का वर्णन करने लगा।

“कहते हैं, उसका आदमी यहाँ पानी लेने के लिए उतरा था, इतनी देर में गाड़ी चल पड़ी। वह बैठने के लिए गाड़ी के साथ दौड़ रहा था, औरत झाँककर बाहर देख रही थी कि
बैठ गया या नहीं, तभी बाहर गिर पड़ी और कट गयी।”

“हूँ।”

थोड़ी देर बाद बूढ़े ने फिर कहा - “बाबूजी, औरत-जात भी कैसी होती है! भला वह गाड़ी से रह जाता तो कौन बड़ी बात थी! दूसरी में आ जाता। लेकिन औरत का दिल कैसे
मान जाये-”

रामलाल ने जेब से चार आने पैसे निकालकर उसे देते हुए संक्षेप में कहा - “जाओ।”

“बाबूजी-”

रामलाल ने टाँगें बेंच पर फैलाते हुए कहा, “मैं सोऊँगा।”

बूढ़ा चला गया। जाता हुआ स्टेशन का एकमात्र लैम्प भी बुझा गया - अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी।

रामलाल उठकर प्लेटफार्म पर टहलने लगा और सोचने लगा...

उसने पानी नहीं माँगा था, लेकिन अगर मैंने ही कह दिया होता कि मैं अभी लाये देता हूँ पानी, तो - तो-

आदमी जब चाहता है जीवन के बीस वर्षों को बीस मिनट - बस सेकेंड में जी डालना; और वह बीस सेकेंड भी ऐसे जो आज के नहीं हैं, बीस वर्ष पहले के हैं, मर चुके हैं,
तब उसकी आत्मा का अकेलापन कहा नहीं जा सकता, अँधेरे में ही कुछ अनुभव किया जा सकता है...

5

रामलाल स्टेशन का प्लेटफार्म पार करके रेल की पटरी के साथ हो लिया। एक सौ दस कदम चलकर वह रुका और पटरी की ओर देखने लगा। उसे लगा, पटरी के नीचे लकड़ी के स्लीपरों
पर जैसे खून के पुराने धब्बे हैं। वह पटरी के पास ही बैठ गया। लेकिन बीस वर्ष में तो स्लीपर कई बार बदल चुकते हैं। ये धब्बे खून के हैं, या तेल के?

रामलाल ने चारों ओर देखा। वही स्थान है - वही स्थान है। आस-पास के दृश्य अधिक उसका मन गवाही देता है।

और रामलाल घुटनों पर सिर टेककर, आँखें बन्द करके पुराने दृश्यों को जिलाता है। वह कठोर एकाग्रता से उस दृश्य को सामने लाना चाहता है - नहीं, सामने आने से रोकना
चाहता है - नहीं, वह कुछ भी नहीं चाहता, वह नहीं जानता कि वह क्या चाहता है या नहीं चाहता है। उसने अपने आपको एक प्रेत को समर्पित कर दिया है। जीवन में उससे
खिंचे रहने का यही एक प्रायश्चित्त उसके पास है। और इस समय स्वयं मिट्टी होकर, स्वयं प्रेत होकर, वह मानो उससे एक हो लेना चाहता है, उससे कुछ आदेश पा लेना चाहता
है...

जाने कितनी बार वह चौंकता है। सामने कहीं से रोने की आवाज़ आ रही है - एक औरत के रोने की। रामलाल उठकर चारों ओर देखता है, कहीं कुछ नहीं दीखता। आवाज़ निरन्तर
आती है। रामलाल आवाज़ की ओर चल पड़ता है - जो स्टेशन से परे की ओर है...

इन्दु कभी रोयी थी? उसे याद नहीं आता। लेकिन यह कौन है जो रो रहा है? और इस आवाज़ में यह कशिश क्यों है...

“कौन है?”

कोई उत्तर नहीं मिलता। दो-चार क़दम चलकर रामलाल कोमल स्वर में फिर पूछता है, “कौन रोता है?” रेल की पटरी के पास से कोई उठता है। रामलाल देखता है। किसी गाढ़े
रंग के आवरण में बिलकुल लिपटी हुई एक स्त्री। उसे पास आता देखकर जल्दी से एक ओर को चल देती है और क्षण-भर में झुरमुट की ओट हो जाती है। रामलाल पीछा भी करता
है, लेकिन अन्धकार में पीछा करना व्यर्थ है - कुछ दीखता ही नहीं।

रामलाल पटरी की ओर लौटकर वह स्थान खोजता है, जहाँ वह बैठी थी। क्या यहीं पर? नहीं, शायद थोड़ा और आगे। यहाँ पर? नहीं, थोड़ा और आगे।

उसका पैरा किसी गुदगुदी चीज़ से टकराता है। वह झुककर टटोलता है - एक कपड़े की पोटली। बैठकर खोलने लगता है। पोटली चीख उठती है। काँपते हाथों से उठकर वह देखता
है, पोटली एक छोटा-सा शिशु है जिसे उसने जगा दिया है।

वह शिशु को गोद में लेकर थपथपाता हुए स्टेशन लौट आता है और बेंच पर बैठ जाता है। घड़ी देखता है, तीन बजे हैं। पाँच बजे गाड़ी मिलेगी। अपने ओवर कोट से वह बच्चे
को ढँक लेता है-दो घंटे के लिए इतना प्रबन्ध काफ़ी है। गाड़ी में बिस्तर खोला जा सकेगा...

6

रामलाल ने अपने गाँव में एक पक्का मकान बनवा दिया है और उसी में रहता है। साथ रहती है वह पायी हुई शिशु-कन्या जिसका नाम उसने इन्दुकला रखा है, और उसकी आया,
जो दिन-भर उसे गाड़ी में फिराया करती है।

गाँव के लोग कहते हैं, कि रामलाल पागल है। पैसे वाले भी पागल होते हैं। और इन्दु जहाँ-जहाँ जाती है, वे उँगली उठाकर कहते हैं - “‘वह देखो, उस पागल बूढ़े की
बेटी।” इसमें बड़ा गूढ़ व्यंग्य होता है, क्योंकि वे जानते हैं कि बूढ़ा रामलाल किसी के पाप का बोझ ढो रहा है। लेकिन रामलाल को किसी की परवाह नहीं है, वह निर्द्वन्द्व
है। उसके हृदय में विश्वास है । वह खूब जानता है कि उसकी क्षमाशीला इन्दु ने स्वयं प्रकट होकर अपने स्नेहपूर्ण अनुकम्पा के चिह्न स्वरूप अपना अंश और प्रतिरूप
वह बेटी उसे भेंट की थी।

(सितम्बर 1936)

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

संदेह / जयशंकर प्रसाद


रामनिहाल अपना बिखरा हुआ सामान बाँधने में लगा। जँगले से धूप आकर उसके छोटे-से शीशे पर तड़प रही थी। अपना उज्ज्वल आलोक-खण्ड, वह छोटा-सा दर्पण बुद्ध की सुन्दर
प्रतिमा को अर्पण कर रहा था। किन्तु प्रतिमा ध्यानमग्न थी। उसकी आँखे धूप से चौंधियाती न थीं। प्रतिमा का शान्त गम्भीर मुख और भी प्रसन्न हो रहा था। किन्तु
रामनिहाल उधर देखता न था। उसके हाथों में था एक कागजों का बण्डल, जिसे सन्दूक में रखने के पहले वह खोलना चाहता था। पढऩे की इच्छा थी, फिर भी न जाने क्यों हिचक
रहा था और अपने को मना कर रहा था, जैसे किसी भयानक वस्तु से बचने के लिए कोई बालक को रोकता हो।

बण्डल तो रख दिया पर दूसरा बड़ा-सा लिफाफा खोल ही डाला। एक चित्र उसके हाथों में था और आँखों में थे आँसू। कमरे में अब दो प्रतिमा थीं। बुद्धदेव अपनी विराग-महिमा
में निमग्न। रामनिहाल रागशैल-सा अचल, जिसमें से हृदय का द्रव आँसुओं की निर्झरिणी बनकर धीरे-धीरे बह रहा था।

किशोरी ने आकर हल्ला मचा दिया-”भाभी, अरे भाभी! देखा नहीं तूने, न! निहाल बाबू रो रहे हैं। अरे, तू चल भी!”

श्यामा वहाँ आकर खड़ी हो गयी। उसके आने पर भी रामनिहाल उसी भाव में विस्मृत-सा अपनी करुणा-धारा बहा रहा था। श्यामा ने कहा-”निहाल बाबू!”

निहाल ने आँखें खोलकर कहा-”क्या है? .... अरे, मुझे क्षमा कीजिए।” फिर आँसू पोछने लगा।

“बात क्या है, कुछ सुनूँ भी। तुम क्यों जाने के समय ऐसे दुखी हो रहे हो? क्या हम लोगों से कुछ अपराध हुआ?”

“तुमसे अपराध होगा? यह क्या कह रही हो? मैं रोता हूँ, इसमें मेरी ही भूल है। प्रायश्चित करने का यह ढंग ठीक नहीं, यह मैं धीरे-धीरे समझ रहा हूँ। किन्तु करूँ
क्या? यह मन नहीं मानता।”

श्यामा जैसे सावधान हो गयी। उसने पीछे फिरकर देखा कि किशोरी खड़ी है। श्यामा ने कहा-”जा बेटी! कपड़े धूप में फैले हैं, वहीं बैठ।” किशोरी चली गई। अब जैसे सुनने
के लिए प्रस्तुत होकर श्यामा एक चटाई खींचकर बैठ गयी। उसके सामने छोटी-सी बुद्धप्रतिमा सागवान की सुन्दर मेज पर धूप के प्रतिबिम्ब में हँस रही थी। रामनिहाल
कहने लगा-

“श्यामा! तुम्हारा कठोर व्रत, वैधव्य का आदर्श देखकर मेरे हृदय में विश्वास हुआ कि मनुष्य अपनी वासनाओं का दमन कर सकता है। किन्तु तुम्हारा अवलम्ब बड़ा दृढ़
है। तुम्हारे सामने बालकों का झुण्ड हँसता, खेलता, लड़ता, झगड़ता है। और तुमने जैसे बहुत-सी देव-प्रतिमाएँ, शृंगार से सजाकर हृदय की कोठरी को मन्दिर बना दिया।
किन्तु मुझको वह कहाँ मिलता। भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में, छोटा-मोटा व्यवसाय, नौकरी और पेट पालने की सुविधाओं को खोजता हुआ जब तुम्हारे घर में आया, तो
मुझे विश्वास हुआ कि मैंने घर पाया। मैं जब से संसार को जानने लगा, तभी से मैं गृहहीन था। मेरा सन्दूक और ये थोड़े-से सामान, जो मेरे उत्तराधिकार का अंश था,
अपनी पीठ पर लादे हुए घूमता रहा। ठीक उसी तरह, जैसे कञ्जर अपनी गृहस्थी टट्टू पर लादे हुए घूमता है।

“मैं चतुर था, इतना चतुर जितना मनुष्य को न होना चाहिए; क्योंकि मुझे विश्वास हो गया है कि मनुष्य अधिक चतुर बनकर अपने को अभागा बना लेता है, और भगवान् की दया
से वञ्चित हो जाता है।

“मेरी महत्वाकांक्षा, मेरे उन्नतिशील विचार मुझे बराबर दौड़ाते रहे। मैं अपनी कुशलता से अपने भाग्य को धोखा देता रहा। यह भी मेरा पेट भर देता था। कभी-कभी मुझे
ऐसा मालूम होता कि यह दाँव बैठा कि मैं अपने आप पर विजयी हुआ। और मैं सुखी होकर, सन्तुष्ट होकर चैन से संसार के एक कोने में बैठ जाऊँगा; किन्तु वह मृग-मरीचिका
थी।

“मैं जिनके यहाँ नौकरी अब तक करता रहा, वे लोग बड़े ही सुशिक्षित और सज्जन हैं। मुझे मानते भी बहुत हैं। तुम्हारे यहाँ घर का-सा सुख है; किन्तु यह सब मुझे छोडऩा
पड़ेगा ही।”-इतनी बात कहकर रामनिहाल चुप हो गया।

“तो तुम काम की एक बात न कहोगे। व्यर्थ ही इतनी....” श्यामा और कुछ कहना चाहती थी कि उसे रोककर रामनिहाल कहने लगा, “तुमको मैं अपना शुभचिन्तक मित्र और रक्षक
समझता हूँ, फिर तुमसे न कहूँगा, तो यह भार कब तक ढोता रहूँगा? लो सुनो। यह चैत है न, हाँ ठीक! कार्तिक की पूर्णिमा थी। मैं काम-काज से छुट्टी पाकर सन्ध्या की
शोभा देखने के लिए दशाश्वमेघ घाट पर जाने के लिए तैयार था कि ब्रजकिशोर बाबू ने कहा-‘तुम तो गंगा-किनारे टहलने जाते ही हो। आज मेरे एक सम्बन्धी आ गये हैं, इन्हें
भी एक बजरे पर बैठाकर घुमाते आओ, मुझे आज छुट्टी नहीं है।

“मैंने स्वीकार कर लिया। आफिस में बैठा रहा। थोड़ी देर में भीतर से एक पुरुष के साथ एक सुन्दरी स्त्री निकली और मैं समझ गया कि मुझे इन्हीं लोगों के साथ जाना
होगा। ब्रजकिशोर बाबू ने कहा-‘मानमन्दिर घाट पर बजरा ठीक है। निहाल आपके साथ जा रहे हैं। कोई असुविधा न होगी। इस समय मुझे क्षमा कीजिए। आवश्यक काम है।’

“पुरुष के मुँह पर की रेखाएँ कुछ तन गयीं। स्त्री ने कहा-‘अच्छा है। आप अपना काम कीजिए। हम लोग तब तक घूम आते हैं।’

“हम लोग मानमन्दिर पहुँचे। बजरे पर चाँदनी बिछी थी। पुरुष-‘मोहन बाबू’ जाकर ऊपर बैठ गये। पैड़ी लगी थी। मनोरमा को चढऩे में जैसे डर लग रहा था। मैं बजरे के कोने
पर खड़ा था। हाथ बढ़ाकर मैंने कहा, आप चली आइए, कोई डर नहीं। उसने हाथ पकड़ लिया। ऊपर आते ही मेरे कान में धीरे से उसने कहा-‘मेरे पति पागल बनाये जा रहे हैं।
कुछ-कुछ हैं भी। तनिक सावधान रहिएगा। नाव की बात है।’

“मैंने कह दिया-‘कोई चिन्ता नहीं’ किन्तु ऊपर जाकर बैठ जाने पर भी मेरे कानों के समीप उस सुन्दर मुख का सुरभित निश्वास अपनी अनुभूति दे रहा था। मैंने मन को
शान्त किया। चाँदनी निकल आयी थी। घाट पर आकाश-दीप जल रहे थे और गंगा की धारा में भी छोटे-छोटे दीपक बहते हुए दिखाई देते थे।

“मोहन बाबू की बड़ी-बड़ी गोल आँखें और भी फैल गयीं। उन्होंने कहा-‘मनोरमा, देखो, इस दीपदान का क्या अर्थ है, तुम समझती हो?’

‘गंगाजी की पूजा, और क्या?’-मनोरमा ने कहा।

‘यही तो मेरा और तुम्हारा मतभेद है। जीवन के लघु दीप को अनन्त की धारा में बहा देने का यह संकेत है। आह! कितनी सुन्दर कल्पना!’-कहकर मोहन बाबू जैसे उच्छ्वसित
हो उठे। उनकी शारीरिक चेतना मानसिक अनुभूति से मिलकर उत्तेजित हो उठी। मनोरमा ने मेरे कानों में धीरे से कहा-‘देखा न आपने!’

“मैं चकित हो रहा था। बजरा पञ्चगंगा घाट के समीप पहुँच गया था। तब हँसते हुए मनोरमा ने अपने पति से कहा-‘और यह बाँसों में जो टँगे हुए दीपक हैं, उन्हें आप क्या
कहेंगे?’

“तुरन्त ही मोहन बाबू ने कहा-‘आकाश भी असीम है न। जीवन-दीप को उसी ओर जाने के लिए यह भी संकेत है।’ फिर हाँफते हुए उन्होंने कहना आरम्भ किया-‘तुम लोगों ने मुझे
पागल समझ लिया है, यह मैं जानता हूँ। ओह! संसार की विश्वासघात की ठोकरों ने मेरे हृदय को विक्षिप्त बना दिया है। मुझे उससे विमुख कर दिया है। किसी ने मेरे मानसिक
विप्लवों में मुझे सहायता नहीं दी। मैं ही सबके लिए मरा करूँ। यह अब मै नहीं सह सकता। मुझे अकपट प्यार की आवश्यकता है। जीवन में वह कभी नहीं मिला! तुमने भी
मनोरमा! तुमने, भी मुझे....’

मनोरमा घबरा उठी थी। उसने कहा-‘चुप रहिए, आपकी तबीयत बिगड़ रही है, शान्त हो जाइए!’

“क्यों शान्त हो जाऊँ? रामनिहाल को देख कर चुप रहूँ। वह जान जायँ, इसमें मुझे कोई भय नहीं। तुम लोग छिपाकर सत्य को छलना क्यों बनाती हो?’ मोहन बाबू के श्वासों
की गति तीव्र हो उठी। मनोरमा ने हताश भाव से मेरी ओर देखा। वह चाँदनी रात में विशुद्ध प्रतिमा-सी निश्चेष्ट हो रही थी।

“मैंने सावधान होकर कहा-‘माँझी, अब घूम चलो।’ कार्तिक की रात चाँदनी से शीतल हो चली थी। नाव मानमन्दिर की ओर घूम चली। मैं मोहन बाबू के मनोविकार के सम्बन्ध
में सोच रहा था। कुछ देर चुप रहने के बाद मोहन बाबू फिर अपने आप कहने लगे-

‘ब्रजकिशोर को मैं पहचानता हूँ। मनोरमा, उसने तुम्हारे साथ मिलकर जो षड्यन्त्र रचा है, मुझे पागल बना देने का जो उपाय हो रहा है, उसे मैं समझ रहा हूँ। तो ....’


‘ओह! आप चुप न रहेंगे? मैं कहती हूँ न! यह व्यर्थ का संदेह आप मन से निकाल दीजिए या मेरे लिए संखिया मँगा दीजिए। छुट्टी हो।’

“स्वस्थ होकर बड़ी कोमलता से मोहन बाबू कहने लगे-‘तुम्हारा अपमान होता है! सबके सामने मुझे यह बातें न कहनी चाहिए। यह मेरा अपराध है। मुझे क्षमा करो, मनोरमा!’
सचमुच मनोरमा के कोमल चरण मोहन बाबू के हाथ में थे! वह पैर छुड़ाती हुई पीछे खिसकी। मेरे शरीर से उसका स्पर्श हो गया। वह क्षुब्ध और संकोच में ऊभ-चूभ रमणी जैसे
किसी का आश्रय पाने के लिए व्याकुल हो गयी थी। मनोरमा ने दीनता से मेरी ओर देखते हुए कहा-‘आप देखते हैं?’

“सचमुच मैं देख रहा था। गंगा की घोर धारा पर बजरा फिसल रहा था। नक्षत्र बिखर रहे थे। और एक सुन्दरी युवती मेरा आश्रय खोज रही थी। अपनी सब लज्जा और अपमान लेकर
वह दुर्वह संदेह-भार से पीड़ित स्त्री जब कहती थी कि ‘आप देखते हैं न’, तब वह मानो मुझसे प्रार्थना करती थी कि कुछ मत देखो, मेरा व्यंग्य-उपहास देखने की वस्तु
नहीं।

“मैं चुप था। घाट पर बजरा लगा। फिर वह युवती मेरा हाथ पकड़कर पैड़ी पर से सम्हलती हुई उतरी। और मैंने एक बार न जाने क्यों धृष्टता से मन में सोचा कि ‘मैं धन्य
हूँ।’ मोहन बाबू ऊपर चढऩे लगे। मैं मनोरमा के पीछे-पीछे था। अपने पर भारी बोझ डालकर धीरे-धीरे सीढिय़ों पर चढ़ रहा था।

“उसने धीरे से मुझसे कहा, ‘रामनिहालजी, मेरी विपत्ति में आप सहायता न कीजिएगा!’ मैं अवाक् था।

श्यामा ने एक गहरी दृष्टि से रामनिहाल को देखा। वह चुप हो गया। श्यामा ने आज्ञा भरे स्वर में कहा, “आगे और भी कुछ है या बस?”

रामनिहाल ने सिर झुका कर कहा, “हाँ, और भी कुछ है।”

“वही कहो न!!”

“कहता हूँ। मुझे धीरे-धीरे मालूम हुआ कि ब्रजकिशोर बाबू यह चाहते हैं कि मोहनलाल अदालत से पागल मान लिये जायँ और ब्रजकिशोर उनकी सम्पत्ति के प्रबन्धक बना दिये
जायँ, क्योंकि वे ही मोहनलाल के निकट सम्बन्धी थे। भगवान् जाने इसमें क्या रहस्य है, किन्तु संसार तो दूसरे को मूर्ख बनाने के व्यवसाय पर चल रहा है। मोहन अपने
संदेह के कारण पूरा पागल बन गया है। तुम जो यह चिट्ठियों का बण्डल देख रही हो, वह मनोरमा का है।”

रामनिहाल फिर रुक गया। श्यामा ने फिर तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा। रामनिहाल कहने लगा, “तुमको भी संदेह हो रहा है। सो ठीक ही है। मुझे भी कुछ संदेह हो रहा है,
मनोरमा क्यों मुझे इस समय बुला रही है।”

अब श्यामा ने हँसकर कहा, “तो क्या तुम समझते हो कि मनोरमा तुमको प्यार करती है और वह दुश्चरित्रा है? छि: रामनिहाल, यह तुम क्यों सोच रहे हो? देखूँ तो, तुम्हारे
हाथ में यह कौन-सा चित्र है, क्या मनोरमा का ही?” कहते-कहते श्यामा ने रामनिहाल के हाथ से चित्र ले लिया। उसने आश्चर्य-भरे स्वर में कहा, “अरे, यह तो मेरा ही
है? तो क्या तुम मुझसे प्रेम करने का लड़कपन करते हो? यह अच्छी फाँसी लगी है तुमको। मनोरमा तुमको प्यार करती है और तुम मुझको। मन के विनोद के लिए तुमने अच्छा
साधन जुटाया है। तभी कायरों की तरह यहाँ से बोरिया-बँधना लेकर भागने की तैयारी कर ली है!”

रामनिहाल हत्बुद्धि अपराधी-सा श्यामा को देखने लगा। जैसे उसे कहीं भागने की राह न हो। श्यामा दृढ़ स्वर में कहने लगी-

“निहाल बाबू! प्यार करना बड़ा कठिन है। तुम इस खेल को नहीं जानते। इसके चक्कर में पडऩा भी मत। हाँ, एक दुखिया स्त्री तुमको अपनी सहायता के लिए बुला रही है।
जाओ, उसकी सहायता करके लौट आओ। तुम्हारा सामान यहीं रहेगा। तुमको अभी यहीं रहना होगा। समझे। अभी तुमको मेरी संरक्षता की आवश्यकता है। उठो। नहा-धो लो। जो ट्रेन
मिले, उससे पटने जाकर ब्रजकिशोर की चालाकियों से मनोरमा की रक्षा करो। और फिर मेरे यहाँ चले आना। यह सब तुम्हारा भ्रम था। संदेह था।”

बुधवार, 7 जनवरी 2015

समझना वह मेरा घर है।-अमृता प्रीतम




आज मैंने
अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा
गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की
दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के हर शहर की
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है यह एक वर है
और जहाँ भी
आज़ाद रूह की झलक पड़े
समझना वह मेरा घर है।

 

रविवार, 4 जनवरी 2015

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है-हरिवंश राय बच्चन



कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

छोटा जादूगर / जयशंकर प्रसाद


कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लडक़ा चुपचाप शराब पीनेवालों को
देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य की
रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा-”क्यों जी, तुमने इसमं क्या देखा?”

“मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर
तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।”-उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी।

मैंने पूछा-”और उस परदे में क्या है? वहाँ तुम गये थे।”

“नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।”

मैंने कहा-”तो चल, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ।” मैंने मन-ही-मन कहा-”भाई! आज के तुम्हीं मित्र रहे।”

उसने कहा-”वहाँ जाकर क्या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाय।”

मैंने सहमत होकर कहा-”तो फिर चलो, पहिले शरबत पी लिया जाय।” उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया।

मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा-”तुम्हारे और कौन हैं?”

“माँ और बाबूजी।”

“उन्होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?”

“बाबूजी जेल में है।”

“क्यों?”

“देश के लिए।”-वह गर्व से बोला।

“और तुम्हारी माँ?”

“वह बीमार है।”

“और तुम तमाशा देख रहे हो?”

उसके मुँह पर तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा-”तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने
मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती।”

मैं आश्चर्य से उस तेरह-चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।

“हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँ जी बीमार है; इसलिए मैं नहीं गया।”

“कहाँ?”

“जेल में! जब कुछ लोग खेल-तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।”

मैंने दीर्घ निश्वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा-”अच्छा चलो, निशाना लगाया जाय।”

हम दोनों उस जगह पर पहुँचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट ख़रीदकर उस लड़के को दिये।

वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद ख़ाली नहीं गया। देखनेवाले दंग रह गये। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया; लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरी रुमाल में बँधे,
कुछ जेब में रख लिए गये।

लड़के ने कहा-”बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ।” वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा-”इतनी जल्दी आँख बदल गयी।”

मैं घूमकर पान की दूकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर-नीचे आना देखने लगा। अकस्मात् किसी ने ऊपर के हिंडोले
से पुकारा-”बाबूजी!”

मैंने पूछा-”कौन?”

“मैं हूँ छोटा जादूगर।”

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कलकत्ते के सुरम्य बोटानिकल-उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी-झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मण्डली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा
था। बातें हो रही थीं। इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा। हाथ में चारखाने की खादी का झोला। साफ़ जाँघिया और आधी बाँहों का कुरता। सिर पर मेरी रुमाल सूत
की रस्सी से बँधी हुई थी। मस्तानी चाल से झूमता हुआ आकर कहने लगा-

“बाबूजी, नमस्ते! आज कहिए, तो खेल दिखाऊँ।”

“नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।”

“फिर इसके बाद क्या गाना-बजाना होगा, बाबूजी?”

“नहीं जी-तुमको....”, क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमती ने कहा-”दिखलाओ जी, तुम तो अच्छे आये। भला, कुछ मन तो बहले।” मैं चुप हो गया; क्योंकि श्रीमती
की वाणी में वह माँ की-सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लड़के को रोका जा नहीं सकता। उसने खेल आरम्भ किया।

उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्ली रूठने लगी। बन्दर घुड़कने लगा।

गुडिय़ा का ब्याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।

मैं सोच रहा था। बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।

ताश के सब पत्ते लाल हो गये। फिर सब काले हो गये। गले की सूत की डोरी टुकड़े-टुकड़े होकर जुट गयी। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा-”अब हो चुका। अपना खेल
बटोर लो, हम लोग भी अब जायँगे।”

श्रीमती जी ने धीरे से उसे एक रुपया दे दिया। वह उछल उठा।

मैंने कहा-”लड़के!”

“छोटा जादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है।”

मैं कुछ बोलना ही चाहता था कि श्रीमती ने कहा-”अच्छा, तुम इस रुपये से क्या करोगे?”

“पहले भर पेट पकौड़ी खाऊँगा। फिर एक सूती कम्बल लूँगा।”

मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रुद्ध होकर सोचने लगा-‘ओह! कितना स्वार्थी हूँ मैं। उसके एक रुपये पाने पर मैं ईष्र्या करने लगा था न!”

वह नमस्कार करके चला गया। हम लोग लता-कुञ्ज देखने के लिए चले।

उस छोटे-से बनावटी जंगल में सन्ध्या साँय-साँय करने लगी थी। अस्ताचलगामी सूर्य की अन्तिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। एक शान्त वातावरण था।
हम लोग धीरे-धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे।

रह-रहकर छोटा जादूगर स्मरण होता था। सचमुच वह एक झोपड़ी के पास कम्बल कन्धे पर डाले खड़ा था। मैंने मोटर रोककर उससे पूछा-”तुम यहाँ कहाँ?”

“मेरी माँ यहीं है न। अब उसे अस्पताल वालों ने निकाल दिया है।” मैं उतर गया। उस झोपड़ी में देखा, तो एक स्त्री चिथड़ों से लदी हुई काँप रही थी।

छोटे जादूगर ने कम्बल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा-”माँ।”

मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े।

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बड़े दिन की छुट्टी बीत चली थी। मुझे अपने आफिस में समय से पहुँचना था। कलकत्ते से मन ऊब गया था। फिर भी चलते-चलते एक बार उस उद्यान को देखने की इच्छा हुई।
साथ-ही-साथ जादूगर भी दिखाई पड़ जाता, तो और भी..... मैं उस दिन अकेले ही चल पड़ा। जल्द लौट आना था।

दस बज चुका था। मैंने देखा कि उस निर्मल धूप में सड़क के किनारे एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था। मोटर रोककर उतर पड़ा। वहाँ बिल्ली रूठ रही थी। भालू
मनाने चला था। ब्याह की तैयारी थी; यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्नता की तरी नहीं थी। जब वह औरों को हँसाने की चेष्टा कर रहा था, तब जैसे स्वयं
कँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। मैं आश्चर्य से देख रहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ में मुझे देखा। वह जैसे क्षण-भर के लिए स्फूर्तिमान
हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा-”आज तुम्हारा खेल जमा क्यों नहीं?”

“माँ ने कहा है कि आज तुरन्त चले आना। मेरी घड़ी समीप है।”-अविचल भाव से उसने कहा।

“तब भी तुम खेल दिखलाने चले आये!” मैंने कुछ क्रोध से कहा। मनुष्य के सुख-दु:ख का माप अपना ही साधन तो है। उसी के अनुपात से वह तुलना करता है।

उसके मुँह पर वही परिचित तिरस्कार की रेखा फूट पड़ी।

उसने कहा-”न क्यों आता!”

और कुछ अधिक कहने में जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था।

क्षण-भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गयी। उसके झोले को गाड़ी में फेंककर उसे भी बैठाते हुए मैंने कहा-”जल्दी चलो।” मोटरवाला मेरे बताये हुए पथ पर चल पड़ा।

कुछ ही मिनटों में मैं झोपड़े के पास पहुँचा। जादूगर दौड़कर झोपड़े में माँ-माँ पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था; किन्तु स्त्री के मुँह से, ‘बे...’ निकलकर
रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गये। जादूगर उससे लिपटा रो रहा था, मैं स्तब्ध था। उस उज्ज्वल धूप में समग्र संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्य करने
लगा।